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ग़ालिब-ए-खस्ता के बगैर, कौन से काम बंद हैं ... रोइए ज़ार ज़ार क्या, कीजिये हाय हाय क्यों .
गोइंका व्यंग्यभूषण सम्मान
Wednesday, April 28, 2010
Thursday, April 22, 2010
* हमारे गांधीजी !!!
आलेख
जवाहर चौधरी
गांधीजी ने निडरता की बात कहीं हैं किन्तु वे डरपोक बहुत थे । वे कहते हैं - ‘‘ मैं चोर , भूत और सांप से डरता था । रात कभी अकेले जाने की हिम्मत नहीं होती थी । दिया यानी प्रकाश के बिना सोना लगभग असंभव था ।
सत्य, अहिंसा और शकाहार के समर्थक बापू ने कई बार मांसाहार किया था । ‘‘ ..... मित्रों द्वारा डाक बंगले में इंतजाम होता था । .... वहां मेज-कुर्सी वगैरह के प्रलोभन भी था । .... धीरे धीरे डबल रोटी से नफरत कम हुई ,बकरे के प्रति दया भाव छूटा और मांस वाले पदार्थो में स्वाद आने लगा । ...... एक साल में पांच-छः बार मांस खाने को मिला । ... जिस दिन मांस खा कर आता ... माताजी भोजन के लिये बुलातीं तो उन्हें झूठ कहना पड़ता कि ‘भूख नहीं है , खाना हजम नहीं हुआ है ’ ।
उन्हें बीड़ी पीने का शौक भी लगा और इसके लिये उन्होंने चोरी भी की । वे कहते हैं - ‘‘ एक रिश्तेदार के साथ मुझे बीड़ी पीने का शौक लग गया । गांठ में पैसे नहीं थे इसलिये काकाजी पीने के बाद जो ठूंठ वे फेंक देते थे , उन्हें हमने बीनना शुरु कर दिया । लेकिन ठूंठ हर समय नहीं मिल पाते थे इसलिये अपने यहां के नौकर की जेब से एकाध पैसा चुराने की आदत पड़ गई और बीड़ी खरीदने लगे ’’।
एक बार उन पर पच्चीस रुपए का कर्ज हो गया । उन्होंने लिखा कि - ‘‘ हम दोनों भाई कर्ज अदायगी के बारे में सोच रहे थे यानी चिंतित थे । भाई के हाथ में सोने का कड़ा था । उसमें से एक तोला सोना काट लेना मुश्किल नहीं था । कड़ा कटा । कर्ज अदा हुआ । इसके बाद ग्लानी से भरे ‘मोहन’ ने पिता को पत्र लिख कर अपनी गलती स्वीकारी ।
मोहनदास जब सोलह साल के थे तब की घटना स्तब्ध करने वाली है । ’’ ..... पत्नी गर्भवती हुई । ...... पिताजी लंबे समय से बीमार चले आ रहे थे ..... उनकी बीमारी बढ़ती जा रही थी । ... अवसान की घोर रात्रि समीप आ गई । रात साढ़े दस- ग्यारह बजे होंगे । मैं उनके पैर दबा रहा था , चाचाजी ने कहा ‘जा, अब मैं देखूंगा’ । .... मैं खुश हुआ और सीधा शयन कक्ष में पहुंचा । पत्नी बेचारी गहरी नींद में थी । पर मैं सोने कैसे देता ! .... मैंने उसे जगाया ..... पांच मिनिट बीते होंगे ....... पता चला कि पिता गुजर गए ! ..... ’’
विलायत में गांधी ने नाचना-गाना भी सीखा । ‘‘ विलायत में ..... सभ्य पुरुष को नाचना जानना चाहिये । ....... मैंने नृत्य सीखने का निश्चय किया । .... एक कक्षा में भर्ती हुआ , एक सत्र की फीस करीब तीन पाउण्ड जमा किये । उस समय यह रकम बड़ी थी । कोई तीन सप्ताह में छः सबक सीखे ।
पियानो बजाता था पर कुछ समझ में नहीं आता था । .... सोचा वायलियन बजाना सीख लूं ...... तीन पाउण्ड में वायलियन खरीदा और सीखने की फीस दी ’’ ।
विलायत में आहार को लेकर वे उदार रहे ,खासकर अंडों के लिये , लिखते हैं - ‘‘ ... स्टार्च वाला खाना छोड़ा , कभी डबल रोटी और फल पर ही रहा और कभी पनीर , दूध और अंडों का सेवन किया । ..... अंडे खाने में किसी जीवित प्राणी को दुख नहीं पहुंचता है । इस दलील के भुलावे में आ कर मैंने माताजी के सामने की हुई प्रतिज्ञा के रहते भी अंडे खाए । पर मेरा यह ;अंडा मोह थोड़े समय ही रहा । ’’
ब्रम्हचर्य पालन को लेकर गांधी के विचार खूब जाने जाते हैं , किन्तु इसे साधने में उन्हें बहुत कठिनाई हुई , - ‘‘ संयम पालन ब्रम्हचर्य की कठिनाइयों का पार नहीं था । हमने अलग अलग खाटें रखीं । रात में पूरी तरह थकने के बाद ही सोने का प्रयत्न किया । किन्तु इस सारे प्रयत्न का विशेष परिणाम मैं तुरंत नहीं देख सका । ’’
गांधीजी ने कभी गाली भी खाई होगी यह विश्वसनीय नहीं लगता है । कम से कम भारत में तो ऐसा नहीं हो सकता है , लेकिन हुआ । सन् 1891 के आपपास के समय वे काशी आए थे -- ‘‘ मैं काशी-विश्वनाथ के दर्शन करने गया । वहां जो देखा उससे मुझे बड़ा दुख हुआ । संकरी , फिसलन भरी गली से हो कर जाना था । शांति का नाम भी नहीं था । मक्खियों की भिनभिनाहट और दुकानदारों का कोलाहल असह्य था । ....... वहां मैंने ठग दुकानदारों का बाजार देखा । ..... मंदिर में पहुंचने पर सामने बदबूदार सड़े हुए फूल मिले । .... अंदर भी गंदगी थी । .... मैं ज्ञानवापी में गया , वहां भी गंदगी थी । दक्षिणा के रुप में कुछ भी चढ़ाने की मेरी श्रद्धा नहीं थी इसलिये मैंने सचमुच ही एक पाई चढ़ाई जिससे पुजारी तमतमा उठे । उन्होंने पाई फैंक दी । दो-चार गालियां दे कर बोले -‘ तू यों अपमान करेगा तो नरक में पड़ेगा ’ ।
ये गांधी के सच की कुछ बानगियां थीं । हमारी नई पीढ़ी को इनसे उनके सोच और जीवन के अनछुए पक्षों का पता चलता है । उन्होंने यह सच उस समय कहा जब वे महात्मा हो गए थे । गांधी का यह सच जान कर भी हमारे मन में उनके प्रति आस्था कम नहीं होती है अपितु बढ़ती है ।
Sunday, March 21, 2010
* लिपि और भाषा का जीवन
आलेख
जवाहर चौधरी
भाषा और लिपि का संबंध शरीर और आत्मा का संबंध है । दोनों हैं तो पूर्णता है । लिपि को केवल माध्यम मान लेना गलती होगी। भाषा में व्याकरण के महत्व को खारिज नहीं किया जा सकता है । लिपि भाषा की पहचान होती है , खासकर उस वक्त जब वह बोली नहीं जा रही है । कोई भी भाषा केवल बोलव्यवहार नहीं है । किसी भाषा के कुछ शब्द सीख कर काम निकाल लेना अलग बात है । महानगरों में कामवाली बाइयां, ड्र्ायवर या होटल के बैरे भी अंग्रेजी बोलते देखे जा सकते हैं किन्तु वे रोमन लिपि को कितना जानते हैं बताना कठिन है । अंग्रेजी माध्यम के स्कूल खुलने के बावजूद आज भी अंग्रेजी हमारे यहां बड़ी समस्या है । अंग्रेजी में स्पेलिंग और व्याकरण की समस्या हमारे यहां चरम पर होती हैं । ऐसे में यह विचार क्यों नहीं आता है कि अंग्रेजी को देवनागरी लिपि में लिखी जाए ? क्या इससे अंग्रेजी को समझना, बोल व्यवहार में लाना ज्यादा आसान नहीं होगा ?
यही नहीं लिपि के साथ भाषा का इतिहास और साहित्य होता है । भाषा की समृद्धता उसके साहित्य में है । लिपि बदलने से संचित साहित्य कोष को कूड़ा बनाने देर नहीं लगेगी ! जीवंत और समृद्ध भाषा बहते हुए पानी की तरह होती है । वह दूसरी भाषाओं के शब्द और साहित्य अपनाती है । हिन्दी में संस्कृत के अलावा अरबी, फारसी, उर्दू, अंग्रेजी आदि भाषाओं के शब्द बड़ी संख्या में प्रचलित हैं । न केवल बोल व्यवहार में अपितु देवनागरी में भी । ऐसे में यदि हम हिन्दी की लिपि बदल देंगे तो भाषा की पहचान समाप्त हो जाएगी । लिपि के साथ छेड़छाड़ संस्कृति और इतिहास के साथ भी छेड़छाड़ है । यदि उच्चारण दोष के कारण किन्हीं क्षेत्रों में कुछ शब्दों को भिन्न प्रकार से या गलत बोला जाता है तो इसका मतलब यह नहीं है कि लिपि का बदला जाना उचित है । अंग्रेजी विश्व के अनेक देशों में बोली-लिखी जाती है किन्तु सब जगह अलग ढंग से । भारत की अंग्रेजी ‘इंडियन-इंग्लिश’ है । हिन्दी में ‘जनता’ को कुछ जगहों पर ‘जन्ता’ बोला जाता है तो यह क्षेत्रीय प्रभाव या उच्चारण दोष है । जहां भी लिपि बदली है हमने भाषा को बिगाड़ा ही है । मसलन योग को ‘योगा’, मौर्य सम्राट अशोक को ‘मोरया सम्राटा अशोका’, मोतवानी को ‘मोटवानी’ , मोतीवाला को ‘मोटीवाला’ श्रीवास्तव को ‘सिरीवास्तवा’ , मिश्र को ‘मिशरा’, शुक्ल को ‘शुक्ला’ बना दिया है । उर्दू का उदाहरण देते हुए कहा जाता है कि उर्दू बोलने वाले अधिकांश पाकिस्तान चले गए और सरकारी तौर पर उर्दू की पढ़ाई बंद हो गई लेकिन अब उर्दू देवनागरी में जिन्दा है । लेकिन हिन्दी भाषी अभी कहीं नहीं गए हैं , न ही हिन्दी की पढ़ाई बंद हो गई है । हिन्दी में के अखबार और पत्र-पत्रिकाएं देवनागरी में छप रहे हैं और उनकी प्रसार संख्या लाखों में व कहीं करोड़ का आंकड़ भी छू रही है । हिन्दी की किताबें हर साल अधिक संख्या में निकल रहीं हैं और साल में कई बार आयोजित पुस्तक मेलों में इनकी बिक्री आश्चर्यजनक बढ़त लेती है । विज्ञान विषयों का हिन्दी में खूब अनुवाद हो रहा है और बिक रहा है । इंटरनेट पर हिन्दी ने बजरदस्त कब्जा कर लिया है । आज मेल ही नहीं किसी भी विषय की जानकारी हिन्दी यानी देवनागरी में डाउनलोड की जा सकती है । हिन्दी ब्लाग संसार में बहुत लोकप्रिय हो गए हैं । हिन्दी भाषी नेता अब संसद में अधिक हैं और बहसें भी हिन्दी में हो जाती हैं । अनिच्छा से ही सही परंतु अब टीवी चैनलों में हिन्दी के चेनल ही मुख्य हैं । लिपि बदलने से हिन्दी को लाभ नहीं हानि ही अधिक होगी ।
Monday, March 8, 2010
* दरवाजे पर मुस्करा रहा है भाई !
आलेख
जवाहर चौधरी
यह खबर चिंताजनक है कि असुरक्षा की आशंका के बिना चीन ने अपना रक्षा बजट बढ़ा कर भारत के रक्षा बजट से दुगना कर लिया है । भारत लगातार पाकिस्तान से तनावपूर्ण संघर्ष कर रहा है और पिछले दशक से चल रही आतंकवादी और अलगाववादी, खालिस्तान- आजाद कश्मीर आदि, गतिविधियों से भी जूझ रहा है । इधर तिब्बत और अरुणाचल को लेकर चीन से खतरा दिन पर दिन बढ़ता जा रहा है । सिक्किम और नेपाल हमारी कमजोर कड़ियां साबित हो रहे हैं । बांग्लादेश केवल मुखमित्र है , उसके करोड़ों नागरिकों की घुसपैठ हमारी आंतरिक संरचना और व्यवस्था के लिये हानिकारक होती जा रही है । चीन न केवल अपनी भूमि से अपितु बर्मा, श्रीलंका आदि देशों की भूमि का उपयोग भी इस उदेश्य के लिये कर रहा है । कोई आश्चर्य नहीं होगा यदि वह पाकिस्तान, भूटान, बांग्लादेश जैसे हमारे पड़ौसियों का इस्तेमाल भी हमारे खिलाफ करे ।
खतरा मात्र सैन्यशक्ति का ही नहीं है । चीन जिस तेजी से भारत के बाजार पर कब्जा कर रहा है वह हमारी दीर्धकालीन अर्थव्यवस्था के चिंताजनक है । चीन का मार्केटिंग मेनेजमेंट भी किसी हमले से कम नहीं है । यह चौंकाने वाली बात है कि उन्होंने विविधतापूर्ण भारत के चप्पे चप्पे का सूक्ष्म अध्ययन किया है । किस क्षेत्र की क्या विशेषता है , वहां किस विचार या मान्यता वाले लोग रहते हैं , कौन से त्योहार मानाते हैं, किन देवी-देवताओं को पूजते हैं, पूजा पदृति क्या है , उनकी जरुरतें क्या हैं , सब उन्हें पता है , और इसके अनुसार वह अपने उत्पाद बेच रहा है ! वैश्वीकरण के कारण शायद हमें आपत्ती नहीं करना चाहिये किन्तु चीनी माल दूसरे किसी भी उत्पाद की तुलना में मात्र बीस से पच्चीस प्रतिशत मूल्य पर उपलब्ध हैं !! तरक्की का कितना भी ढ़ोल पीट लिया जाए , भारत आज भी एक गरीब देश है । हल ही में एक ढ़ोंगी संत के भंडारे में एक समय के भोजन, एक स्टील की थाली और एक लड्डू पाने के लिये इतनी भीड़ उमड़ी कि भगदड़ में पैंसठ लोग मारे गए और हजारों घायल हुए । गरीब ही नहीं शेष लोग भी ‘एक के साथ एक फ्री ’ का आॅफर देखते ही टूट पड़ते हैं । ऐसे में यदि चीनी माल चैथाई कीमत पर मिले तो लोग दूसरा क्यों लेगें ? लेकिन इसका असर भयानक होता है । वाराणसी में बनारसी साड़ियों का परंपरागत उद्योग रहा है । कारीगर एक बनारसी साड़ी एक माह में बनाते थे जो तीन से पांच हजार रुपयों में बिकती थी । वैसी ही चीनी साड़ी आज मात्र चार सौ से सात सौ में बिक रही है और वाराणसी के कारीगर भुखमरी के कगार पर पहुंच गए है। इलेक्ट्र्ानिक उपकरणों में चीन का एकाधिकार ही हो गया है । बिजली के सामान का बाजार भी चीनी के हाथ में आ चुका है । पिछले पांच साल से देश अपना सबसे बड़ा त्योहार दीवाली चीनी लाइटिंग से मना रहा है । दैनिक उपयोग के तमाम उपकरण गैरंटी नहीं होने के बावजूद धडल्ले से बिक रहे हैं । मेड इन चाइना वाले हमारे देवी-देवताओं से बाजार अंटे पड़े हैं ! मनोरंजन का सामान, सजावट का सामान, जरुरी-गैरजरुरी सब चीन से आ रहा है !!
चीन के खतरनाक नेटवर्क को इससे समझा जा सकता है कि उसने पंजाब में अभी भी बह रही भिंडरावाले की हवा को ताड़ लिया हमारी राष्ट्र्ीय एकता को मुंह चिढ़ाते हुए भिंडरावाले से संबंधित कई तरह की सामग्री बाजार में उतार दी ! आज पंजाब में भिंडरावाले के फोटो युक्त स्टीकर , केलेन्डर, टी-शर्ट, घड़ियां , चाबी के गुच्छे, चाय-काफी के मग, आदि बड़ी संख्या में बिक रहे हैं । टी-शर्ट पर तो भिंडरावाले की एके-47 लिये फोटो छपी है जो शहरी ही नहीं गांव के युवाओं में आश्चर्यजनक रुप से लोकप्रिय है ! यह सामग्री जालंधर, पटियाला, लुधियाना या अमृतसर में ही नहीं , सरकार की नाक के नीचे, दिल्ली के बाजारों में भी बिक रही है ! खबरों में आया है कि भिंडरावाले के 20 रुपए कीमत वाले दो लाख केलेन्डर बिक चुके हैं !! ऐसी चीनी घड़ियां बिक रहीं हैं जिसके डायल पर भिंडरावाले के चित्र हैं ! हालांकि पंजाब के डीजीपी श्री पीएस गिल ने कहा है कि हमें इन गतिविधियों का पता है और हम इस पर कड़ी निगाह रखे हुए हैं !
प्रश्न केवल आर्थिक या बाजार का नहीं, सुरक्षा का है । डर इस बात का है कि हमारा एक बदनियत पड़ौसी हमारे अंदर तक घुस कर हमारे विचारों, संवेदनाओं और भावनाओं तक को सफलतापूर्वक पढ़ रहा है । इन सूचनाओं को आज वह अपने उद्योगों के पक्ष में उपयोग कर रहा है किन्तु कल भारत के खिलाफ किसी भी गतिविधि में कर सकता है । यदि वह बाजार के रणक्षेत्र में भी हमले जारी रखता है तो आने वाले दस वर्षों में हमारे अधिकांश छोटे-बड़े उद्योगों को अपना अस्तित्व बचाना संभव नहीं रहेगा । बाजार जिस तरह चीन की मुठ्ठी में है उससे उसकी योजना, दक्षता और इरादों का पता चलता है । बदनियत ताकतों ने मीना बाजार सजा लिये हैं , जिसे समझने की जरुरत है । पिछली बार हम ‘ हिन्दी-चीनी भाई-भाई’ के नारे का स्वाद चख चुके हैं । अगर हम शुतुरमुर्ग रहे तो चीन अपना काम कर गुजरेगा और हमें वापस आजादी पाने में इस बार दो सौ से अधिक साल लगेगें ।
खतरा मात्र सैन्यशक्ति का ही नहीं है । चीन जिस तेजी से भारत के बाजार पर कब्जा कर रहा है वह हमारी दीर्धकालीन अर्थव्यवस्था के चिंताजनक है । चीन का मार्केटिंग मेनेजमेंट भी किसी हमले से कम नहीं है । यह चौंकाने वाली बात है कि उन्होंने विविधतापूर्ण भारत के चप्पे चप्पे का सूक्ष्म अध्ययन किया है । किस क्षेत्र की क्या विशेषता है , वहां किस विचार या मान्यता वाले लोग रहते हैं , कौन से त्योहार मानाते हैं, किन देवी-देवताओं को पूजते हैं, पूजा पदृति क्या है , उनकी जरुरतें क्या हैं , सब उन्हें पता है , और इसके अनुसार वह अपने उत्पाद बेच रहा है ! वैश्वीकरण के कारण शायद हमें आपत्ती नहीं करना चाहिये किन्तु चीनी माल दूसरे किसी भी उत्पाद की तुलना में मात्र बीस से पच्चीस प्रतिशत मूल्य पर उपलब्ध हैं !! तरक्की का कितना भी ढ़ोल पीट लिया जाए , भारत आज भी एक गरीब देश है । हल ही में एक ढ़ोंगी संत के भंडारे में एक समय के भोजन, एक स्टील की थाली और एक लड्डू पाने के लिये इतनी भीड़ उमड़ी कि भगदड़ में पैंसठ लोग मारे गए और हजारों घायल हुए । गरीब ही नहीं शेष लोग भी ‘एक के साथ एक फ्री ’ का आॅफर देखते ही टूट पड़ते हैं । ऐसे में यदि चीनी माल चैथाई कीमत पर मिले तो लोग दूसरा क्यों लेगें ? लेकिन इसका असर भयानक होता है । वाराणसी में बनारसी साड़ियों का परंपरागत उद्योग रहा है । कारीगर एक बनारसी साड़ी एक माह में बनाते थे जो तीन से पांच हजार रुपयों में बिकती थी । वैसी ही चीनी साड़ी आज मात्र चार सौ से सात सौ में बिक रही है और वाराणसी के कारीगर भुखमरी के कगार पर पहुंच गए है। इलेक्ट्र्ानिक उपकरणों में चीन का एकाधिकार ही हो गया है । बिजली के सामान का बाजार भी चीनी के हाथ में आ चुका है । पिछले पांच साल से देश अपना सबसे बड़ा त्योहार दीवाली चीनी लाइटिंग से मना रहा है । दैनिक उपयोग के तमाम उपकरण गैरंटी नहीं होने के बावजूद धडल्ले से बिक रहे हैं । मेड इन चाइना वाले हमारे देवी-देवताओं से बाजार अंटे पड़े हैं ! मनोरंजन का सामान, सजावट का सामान, जरुरी-गैरजरुरी सब चीन से आ रहा है !!
चीन के खतरनाक नेटवर्क को इससे समझा जा सकता है कि उसने पंजाब में अभी भी बह रही भिंडरावाले की हवा को ताड़ लिया हमारी राष्ट्र्ीय एकता को मुंह चिढ़ाते हुए भिंडरावाले से संबंधित कई तरह की सामग्री बाजार में उतार दी ! आज पंजाब में भिंडरावाले के फोटो युक्त स्टीकर , केलेन्डर, टी-शर्ट, घड़ियां , चाबी के गुच्छे, चाय-काफी के मग, आदि बड़ी संख्या में बिक रहे हैं । टी-शर्ट पर तो भिंडरावाले की एके-47 लिये फोटो छपी है जो शहरी ही नहीं गांव के युवाओं में आश्चर्यजनक रुप से लोकप्रिय है ! यह सामग्री जालंधर, पटियाला, लुधियाना या अमृतसर में ही नहीं , सरकार की नाक के नीचे, दिल्ली के बाजारों में भी बिक रही है ! खबरों में आया है कि भिंडरावाले के 20 रुपए कीमत वाले दो लाख केलेन्डर बिक चुके हैं !! ऐसी चीनी घड़ियां बिक रहीं हैं जिसके डायल पर भिंडरावाले के चित्र हैं ! हालांकि पंजाब के डीजीपी श्री पीएस गिल ने कहा है कि हमें इन गतिविधियों का पता है और हम इस पर कड़ी निगाह रखे हुए हैं !
प्रश्न केवल आर्थिक या बाजार का नहीं, सुरक्षा का है । डर इस बात का है कि हमारा एक बदनियत पड़ौसी हमारे अंदर तक घुस कर हमारे विचारों, संवेदनाओं और भावनाओं तक को सफलतापूर्वक पढ़ रहा है । इन सूचनाओं को आज वह अपने उद्योगों के पक्ष में उपयोग कर रहा है किन्तु कल भारत के खिलाफ किसी भी गतिविधि में कर सकता है । यदि वह बाजार के रणक्षेत्र में भी हमले जारी रखता है तो आने वाले दस वर्षों में हमारे अधिकांश छोटे-बड़े उद्योगों को अपना अस्तित्व बचाना संभव नहीं रहेगा । बाजार जिस तरह चीन की मुठ्ठी में है उससे उसकी योजना, दक्षता और इरादों का पता चलता है । बदनियत ताकतों ने मीना बाजार सजा लिये हैं , जिसे समझने की जरुरत है । पिछली बार हम ‘ हिन्दी-चीनी भाई-भाई’ के नारे का स्वाद चख चुके हैं । अगर हम शुतुरमुर्ग रहे तो चीन अपना काम कर गुजरेगा और हमें वापस आजादी पाने में इस बार दो सौ से अधिक साल लगेगें ।
Friday, February 19, 2010
* बदली भूमिका में कौरव
आलेख
जवाहर चौधरी
जहां तक द्रोपदी का प्रश्न है , इस पात्र का स्थान देवी या ईश्वर के रुप में नहीं है । महाभारत में केवल कृष्ण ही देवपात्र हैं । उन्हीं की पूजा होती है , उन्हीं के मंदिर देशभर में पाए जाते हैं । किन्तु महाभारत के अन्य सैकड़ों पात्र कहीं भी देव-समान नहीं माने जाते हैं । अपवाद स्वरुप महाभारत के एक-दो पात्रों के मंदिर हो सकते हैं लेकिन हमारे यहां मंदिर तो अमिताभ बच्चन और एश्वर्या के भी हैं ! रही बात अश्लीलता और अपमान की तो बहुत सी बातों पर गौर करने की जरुरत है । देश भर में कहीं भी देखा जा सकता है कि बहुरुपिये शिवजी, राम, कृष्ण, माता कालका, दुर्गा , सरस्वती , लक्ष्मी आदि का रुप धरे भीख मांगते रहते हैं । क्या यह देवी-देवताओं का और उससे ज्यादा स्थापित हो चुकी आस्थाओं का अपमान नहीं है ! दीवाली जैसे त्योहार पर लक्ष्मीजी के चित्र की पूजा करने लक्ष्मीछाप पटाखे निलिप्त भाव से चलाते हैं । अखबारों में ईश्वरों के जन्मदिन पर फोटो छपते हैं और उनका जिस तरह रद्दीकरण होता है उसका विवरण न ही दिया जाए तो ठीक है । शहरों-गांवों में जगह जगह मंदिर बना कर उन्हें लावारिस हालत में छोड़ देने की प्रवृत्ति आम है । प्रायः उन जगहों पर अगरबत्ती या दीपक लगाना तो दूर की बात है कोई सफाई करने भी नहीं आता है । बेचारे ईश्वर निरीह अवस्था में पड़े धूल सेवन करते रहते हैं । महत्वपूर्ण देव शनीमहाराज हर हप्ते भीख का कितना बड़ा जरिया बनते हैं इस पर किसी की नजर नहीं है !! उपन्यास में किसी चरित्र पर कुछ लिखे जाने पर जो लोग आहत होते हैं वे उपरोक्त बातों से अनभिज्ञ हैं ऐसा तो नहीं ही कहा जाना चाहिये , ये हो सकता है कि इस पर राजनीति करना अभी शेष है ।

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Monday, February 8, 2010
* बेटों के हाथ में मां की मौत की लकीर !
आलेख
जवाहर चौधरी
यह घटना हमारे सामने कई सवाल खड़े करती है । आखिर वो कौन सी स्थितियां हैं जो हमारे युवाओं को तांत्रिकों के चक्कर में डालती है ! उपरोक्त घटना किसी पिछड़े इलाके में अपढ़ लोगों के बीच घटती हुई होती तो इसके कारण तय करना कठिन नहीं था । दिल्ली में रहते हुए , इंजीनियरिंग और एमबीए जैसी विज्ञान सम्मत पढ़ाई करने वाले तांित्रकों की शरण में चले जांए और मां की हत्या तक कर दें !! यह चिंता और चिंतन के लिये उच्च प्राथमिकता वाला विषय है । यह जानना जरूरी है कि वो कौन सा भय है जो हमारे युवाओं को तंत्र-मंत्र, अंगूठी-नगीनों और छू-छा की ओर ले जाता है । हमारी शिक्षा में जरूर कोई कमी है जो डिग्रियां तो दे रही है लेकिन विज्ञान का ज्ञान या वैज्ञानिक दृष्टि नहीं । टीवी, कम्प्यूटर, आईपाड, लेपटाप, मोबाइल, बाइक जैसे विज्ञान के चमत्कारों से लदी-फंदी रहने वाली पीढ़ी कैसे अन्धविश्वास के दलदल में फंस रही है ।
Thursday, February 4, 2010
* पांच दिनों से टेबल पर पड़ी लाश !
आलेख
जवाहर चौधरी
पश्चिम को अपना आदर्ष मानने और अनुकरण करने वाले हम गरीब देश प्रायः उन बातों को अनदेखा कर देते हैं जो धीमे जहर की तरह हमारे लिये घातक बन रही है । गत वर्ष की एक घटना है । अमेरिका में जार्ज नाम का व्यक्ति एक कंपनी में पिछले तीस वर्षों से काम कर रहा था । इस दफ्तर में अन्य कई लोग भी काम करते हैं , कार्य सतत् शिफ्टों में चलता है । जार्ज के पास भी उसके कार्य का दायित्व था जिसकी साप्ताहिक रिपोर्ट देना होती थी । एक सोमवार दफ्तर में उसे हार्ट अटैक हुआ और वह अपनी टेबल पर सर रखे अचेत हो गया तथा बाद में मर गया । लेकिन टारगेट हांसिल करने के चक्कर में कागजों में डूबे रहने वाले कर्मचारियों में से किसी का ध्यान उसकी ओर नहीं गया । सब अपना काम करते आते और जाते रहे । सप्ताहंत में जब सफाई कर्मचारी काम कर रहा था तो उसने देखा कि जार्ज मर चुका है । पोस्टमार्टम रिपोर्ट में पाया गया कि उसकी मृत्यु पांच दिन पूर्व हो चुकी है ।
यह खबर चैंकाने वाली है किन्तु पश्चिम समाज में आज के समय में यह संभव है । समझ में यह नहीं आता कि घन के पीछे सब कुछ भूल कर रात दिन भागते रहने का कारण क्या है ! आखिर संपन्नता का लक्ष्य क्या है ? दफ्तर के साथी काम के इतने दबाव में क्यों हैं कि उन्होंने पांच दिनों से मरे पड़े अपने साथी की सुध नहीं ली ! परिवार वाले कहां व्यस्त थे ! माना कि वहां परिवार के सदस्य अलग अलग समय में आ कर विश्राम कर वापस काम पर लौट जाते हैं और प्रायः सप्ताहांत में ही मिलते हैं । लेकिन क्या पांच दिनों तक उन्हें फोन पर संवाद करने का भी समय नहीं मिला ! जरूरत नहीं होने पर भी संवाद करना क्या वहां परिवार की आवश्यकता नहीं है ?! किसी अनजानी सफलता या लक्ष्य को पा लेने में अपने को काम में झोंके रखना एक नशा या लत तो नहीं है ! जिनकी आवश्यकता हजारों की है उन्हें लाखों क्यों चाहिये ! जो लाखों पा रहे हैं वे करोडों के लिये क्यों दौड़े जा रहे हें ! उन्हें क्यों पता नहीं पड़ता कि इस दौड़ के चलते वे कब मनुष्य से मशीन बन गए हैं । उनके पास अपने परिवार के लिये समय नहीं हैं , न मित्रों के लिये है और न ही स्वयं अपने लिये । ज्यादा समय वे थके और चिड़चिड़े से रहते हैं । उन्हें ठीक से नींद भी नहीं आती है । प्रायः वे सिर दर्द , बदन दर्द और पेनकिलर्स को अपना जीवन साथी बना चुकते हैं । उच्च रक्तचाप जैसी बीमारियां कब प्रेयसी की तरह दिल में जगह बना लेतीं हैं पता नहीं चलता ! अक्सर युवावस्था में ही हमारी मानव मशीनें डाक्टर और दवा के सहारे हो जाती हैं । हासिल होने के बाद भी दौलत काम आ जाए यह जरूरी नहीं है । विकास के नाम पर ये किस तरह के समाज की रचना कर ली है हमने !
जिस तरह पश्चिम और उसकी कार्य संस्कृति हमारे यहां फैल रही है वह चिंता जनक है । भरपूर वेतन के प्रस्ताव के साथ सात दिन-चैबीस घंटों की मांग करने वाले विज्ञापन दिखाई देने लगे हैं । क्या अधिक वेतन के लालच में हम अपने बच्चों या परिवार के किसी भी सदस्य को इस तरह के दलदल में फैंक देंगे ? परिवार की भूमिका इस मामले में अहम होनी चाहिये । स्वास्थ्य या जान की कीमत पर कुछ गैरजरूरी आवश्यकताएं तत्काल पूरी होने से रह भी जाएं तो परिवार को धैर्य रखना चाहिये ।
Saturday, January 30, 2010
* क्या गांधी केवल एक मूर्ति का नाम है ?
आलेख
जवाहर चौधरी
लेकिन केवल मूर्तियों के सहारे न तो भगवान बना जा सकता है और न ही महान । अगर विचार जिन्दा नहीं रह पाएं तो सचमुच के महापुरुषों की मूर्तिया भी परिन्दों का शौचालय बन जातीं हैं । विचारों का संवर्धन केवल ‘करारे हमले’ करने से नहीं होता हैं, बढ़िया राजनीति भले ही हो जाए ।
विचारों के केन्द्र होते हैं पुस्तकालय, किताबें, पत्र-पत्रिकाएं, लेखक-चिंतक, लेखक- संगठन, कवि-साहित्यकार आदि । इस समय दलित चिंतन शिखर पर है किन्तु उसे कहीं से भी उचित संरक्षण प्राप्त नहीं है । दलित साहित्य और विचार पूरी गरिमा के साथ सामने नहीं आ पा रहा है । केवल मुख्यमंत्रीजी की प्रशस्ति में माटे-मोटे ग्रंथ निकालना दलित साहित्य या विचार नहीं हो सकता है । महापुरुष अपनी प्रशस्ति में किताबें प्रयोजित नहीं करवाते हैं , वे विचार प्रकट करते हैं और अन्यों के विचारों को आगे बढ़ाते हैं । उ.प्र. सरकार ने पुस्तकालयों के लिये ऐसी कोई योजना नहीं बनाई है जिसकी चर्चा देश में हुई हो । न ही उन्होंने दलित विचारधारा वाले लेखकों - चिंतकों का कोई उल्लेखनीय राष्ठ्र्ीय सम्मेलन उ.प्र. में करवाया है जिससे समाज कल्याण के नए सूत्र-समीकरण और विचार उभर कर आएं । देशभर में इनदिनों दलित लेखन से जुड़े बड़े लेखक-विचारक चर्चित हैं , लेकिन दलितों की पैरोकार सरकार ने इनका नोटिस नहीं लिया प्रतीत होता है । मूर्तियों के लिये लोगों की परवाह किये बिना ,करोड़ों का वित्त-प्रावधान और कानूनी प्रावधान करने वाली सरकार ने विचार के लिये क्या प्रावधान किया है इसका कहीं कोई जिक्र क्यों नहीं है ? कांग्रेस ने गांधी और नेहरु की मूर्तियां केवल किसी राजनीतिक प्रतिक्रिया स्वरुप स्थापित नहीं करवाई हैं , उनके विचारों पर भी काम किया है । क्या गांधी भारत में केवल एक मूर्ति का नाम है ? दुनिया में , इतिहास में, जहां गांधी की मूर्ति नहीं है वहां क्या गांधी नहीं है ?
Friday, January 29, 2010
* सो जाओ कि भाषा मरती है !!
आलेख
जवाहर चौधरी
टीवी, फ़िल्में और अख़बार आज संचार के मुख्य माध्यम है। इनमें ९५ प्रतिशत विज्ञापन हिंदी के होते हैं। रामायण, महाभारत जैसे कार्यक्रम तो थे ही हिंदी के, लेकिन कौन बनेगा करोड़पति या इसी श्रृंखला के तमाम लॉटरी-जुआ सरीखे कार्यक्रम हिंदी में ही चलाए गए। धंधेबाज़ उसी भाषा का दामन पकड़ लेते हैं जिसमें उन्हें पैसा मिलने की गुंजाइश दिखाई देती हो। पैसा मिले तो हमारा हीरो सीख कर हर भाषा बोलने लगता है। साक्षात्कार देते समय जो सुंदरी अंग्रेज़ी के अलावा कुछ नहीं उगलती वह पैसा मिलने पर भोजपुरी, अवधी, खड़ी बोली, आदि सभी तरह की हिंदी बोल लेती है।
हाल ही में एक नवोदित गायिका को हिंदी गाने के लिए अवार्ड मिला। आभार व्यक्त करते हुए उसने अंग्रेज़ी झाड़ी तो संचालक ने उससे हिंदी में बोलने का आग्रह किया। हिंदी के चार-छह शब्द उसने जिस अपमानजनक ढंग से बोले उसे भूलना कठिन है। भाषा का सरोकार धन और धंधे से हो गया है और यही चिंता का विषय माना जाना चाहिए। थैली दिखाते सामंती बाज़ार के आगे लगता है हमारी ज़बान पतुरिया हो जाती है!
बहुत-सी पत्र-पत्रिकाएँ भाषा के सामान्य, लेकिन आवश्यक मानदंडों की उपेक्षा करते हुए जिस तरह की भाषाई विकृतियां प्रस्तुत कर रही हैं उस पर हल्ला मचाने की आवश्यकता है। लेकिन हम में यानी हिंदीभाषियों में अपनी मातृभाषा के प्रति प्रेम और प्रतिबद्धता अभी तक जागृत नहीं हो पाई है जबकि अन्य भारतीय भाषाओं में यह विकसित है। उर्दू, मराठी, बांग्ला, तमिल, तेलुगू, मलयालम आदि भाषाएं प्रतिबद्धता के साथ विकसित हो रही हैं। ये सारी अंग्रेज़ी का प्रयोग करतीं हैं, लेकिन यह उनकी प्राथमिकता नहीं होती है।दो मराठी या बांग्ला भाषी लोग अंग्रेज़ी जानते हुए भी अपनी भाषा में बात करते हुए गर्व करते हैं। लेकिन हिंदी में प्रायः ऐसा नहीं होता। हिंदी वाला अपनी अच्छी हिंदी को किनारे कर कमज़ोर अंग्रेज़ी के साथ खुद को ऊंचा समझने के भ्रम को पुष्ट करता है। यदि हम ऐसी जगह फंसे हों जहां बर्गर और पित्ज़ा ही उपलब्ध हों तो मजबूरी में उसे खाना ही है, पर इसका मतलब नहीं है कि अपने पाकशास्त्र को खारिज ही कर दें। आज की शिक्षा व्यवस्था में अंग्रेज़ी का हस्तक्षेप अधिक है। इसलिए माना कि फ़िलहाल विकल्प नहीं है। अंग्रेज़ी में ही पढ़िए, लेकिन शेष कामों में अंग्रेज़ी को जबरन घुसेड़ने और गर्व करने की क्या ज़रूरत है.
गांधीजी ने राष्ट्रभाषा के रूप में हिंदी की वकालत की थी। वे स्वयं संवाद में हिंदी को प्राथमिकता देते थे। आज़ादी के बाद सरकारी काम शीघ्रता से हिंदी में होने लगे, ऐसा वे चाहते थे। राजनीतिक संगठनों से कुछ आशा बंधी थी कि कि वे हिंदी को लेकर ठोस और गंभीर कदम उठाएंगे। भाजपा, सपा और अन्य क्षेत्रीय दलों में उम्मीदें अधिक थीं। लेकिन भारतीय सभ्यता और संस्कृति से ऑक्सीज़न लेने वाले दल भी अंग्रेज़ी में दहाड़ते देखे जा सकते हैं। हिंदी को वोट मांगने और अंग्रेज़ी को राज करने की भाषा हम ही बनाए हुए हैं। कुछ लोग सोचेते हैं कि केन्द्र में राजनीतिक सक्रियता के लिए अंग्रेज़ी ज़रूरी है। ऐसा सोचते वक्त यह भुला दिया जाता है कि लालू प्रसाद, रामविलास पासवान, सोनिया गांधी, अटल बिहारी वाजपेयी जैसे शीर्ष पर बैठै नेता बिना अंग्रेज़ी की दक्षता के सक्रिय और सफल है।
Sunday, January 24, 2010
* उदार नेतृत्व को मौका दें मुसलमान
आलेख
जवाहर चौधरी
न चाहते हुए भी बात हमें धर्म और संप्रदायों के संदर्भं में करना पड़ेगी । इसमें कोई संदेह नहीं कि भारत का मुसलमान दुनिया के अन्य मुसलमानों से भिन्न है । इसके कारणों में इतिहास, संस्कृति और परिवेश हैं जिनके विस्तार में जाने की आवश्यकता नहीं है । यह सच्चाई है कि मुसलमानों में शिक्षा का प्रतिशत अन्य समुदायों की तुलना में बहुत कम है । लेकिन जितने लोग शिक्षित हैं वे नाकाफी नहीं हैं । हिन्दुओं की तरह इनमें भी उदार और प्रगतिशील विचारों वाले शिक्षित उपेक्षा के शिकार हैं । चंद कट्टरवादी अपने स्वार्थ के लिये , मुस्लिम समुदाय को भय दिखा कर लामबंद किये रहते हैं । ऐसा करने के लिये वे प्रायः विवादास्पद बयान देते हैं । जिसका परिणाम यह हुआ है कि हिन्दू कट्टर मानसिकता जन्म लेती है और फैलती है ।
भारत उससे अलग हुए दो भूखण्ड़ों से लगा हुआ है जो न केवल अपने को इस्लामिक राष्ट्र घोषित किये हैं अपितु उनकी गतिविधियां भी भारत विरोधी है । सब जानते हैं कि पाकिस्तान और बांगलादेश दोनों ही जगहों पर अल्पसंख्यक हिन्दुओं की स्थिति अच्छी नहीं है । वहां अनेक मंदिर व पूजास्थल हस्तगत कर व्यावसायिक उपयोग में लिये जा रहे हैं । भारत में जब भी सांप्रदायिक तनाव होता है वहां के पूजास्थल संकट में पड़ जाते हैं । कई बार तो प्रशासन के नियंत्रण में तोड़-फोड़ हुई है । तात्पर्य यह कि भारत के पडौसी देश आतंकवाद के जरिये भारत विरोधी गतिविधियां संचालित करते हैं हुए हिन्दू विरोधी भी हो जाते हैं । भारत में भले ही हिन्दुत्व और भारतीयता को एक मानने में कठिनाई महसूस की जा रही हो किन्तु हमारे पड़ौसियों ने इसे एक ही मान लिया है । भारतीय मुसलमान, जिनमें से अधिसंख्य हिन्दू धर्म की जातिवादी कू्ररता के कारण धर्मान्तरण कर गए हैं, इस हिन्दू विरोधी अवधारणा से बहुत आसानी से उनके पक्ष में हो जाते हैं । यह ध्यान रखने वाली बात है कि भारत का मुसलमान जातिशोषण की पीड़ा के कारण बहुत स्वाभाविक रूप से हिन्दुओं का विरोधी होगा , यह बात हिन्दुओं को अभी भी समझ में नहीं आई है । यदि हिन्दुओं को अपनी ऐतिहासिक अमानवीय त्रुटियों का कोई मलाल नहीं है, वे सुधार की मुद्रा या मंशा नहीं रखना चाहते हैं तो यह क्यों नहीं माना जाना चाहिये कि वे हाथ से निकल गए दासों-दलितों पर अब भी दांत पीस रहे हैं !! देवता हाथ में जूता लिये बैठे हैं और चाहते हैं कि दलित चरणों में लोटें, लेकिन कुछ छिटक कर मुसलमान हो गए ! और बात बे बात आंखें दिखाते हैं !! हजारों साल से सामाजिक सत्ता का सुख भोग रहे श्रेष्ठीजनों को यह कैसे रास आ सकता है । बावजूद इसके वे अपनी धार्मिक जटिलताओं में इस तरह जकड़े हैं कि उन्होंने आज तक हिन्दूधर्म में पुनः प्रवेश का कोई सर्वमान्य विधान तय नहीं किया है !!
इधर मुसलमानों का दुर्भाग्य है कि ऐसा नेतृत्व नहीं मिला जो उन्हें हिन्दू विरोधी मनोविज्ञान से बाहर निकाल कर उनमें राष्ट्र्वादी मानसिकता का विकास कर सके । इसलिये बुखारी जैसों की बन आती है और वे राख में दबी आग को हवा देने का मौका पा जाते हैं । यदि जिन्हा, शाहबुद्धीन और बुखारी जैसे लोग नहीं होते तो ठाकरे, सिंघल और तोगडिया भी नहीं होते । भारत के मुसलमानों को अब यह समझ लेना चाहिये कि उनके उग्र नेतृत्व की प्रतिक्रिया में पैदा हुआ कट्टर हिन्दूत्व आम हिन्दू के लिये भी एक समस्या बना हुआ है । आम हिन्दू की नाराजी इस्लाम से नहीं , मुसलमानों की इस चूक से अधिक है कि उन्होंने गलत नेतृत्व चुना । हिन्दू प्रायः शांतिप्रिय और उदार होता है । यही वजह है कि कट्टर हिन्दू की जितनी अलोचना आम हिन्दू कर रहा है उतना किसी और के लिये संभव नहीं है । स्वयं कट्टरवादी हिन्दू भी यह जानते और कहते हैं कि मुसलमान हमारी उतनी बड़ी समस्या नहीं हैं जितने कि प्रगतिशील हिन्दू । शिक्षित और मध्यवर्गीय समाज ने हिन्दुओं के कट्टरवाद को नकार दिया है । यही वजह है कि गुजरात के परिणाम अन्य कहीं भी दोहराए जा सकेंगे इस पर किसी को विश्वास नहीं है । इस प्रकार सामाजिक स्तर पर मुसलमानों को हिन्दुओं से उस तरह का खतरा नहीं ही है जैसा कि उनके नेता उन्हें बताते हैं ।
अब आवश्यकता इस बात की है कि मुसलमानों में ऐसे लोग आगे आएं जो उन्हें काल्पनिक भय और थोपी गई कट्टरता से बाहर निकालें । ऐसा नेतृत्व विकसित हो जो राष्ट्रीय विकास के मुद्दों पर मुसलमानों को भागीदार बनाए । जब किसी उपलब्धि की घोषणा हो तो वे भी अन्य लोगों के समान प्रसन्न हों , खुशी व्यक्त करें । ऐसा करते हुए एक संदेह, जो कि अभी व्यापक है, दूर होगा और वे हिन्दू समाज के अधिक निकट पहुंचेंगे , दूसरी ओर कट्टरपंथियों द्वारा फैलाए गए भ्रम का भी खण्डन होगा ।
हमारे राजनैतिक दल कितने धर्मनिरपेक्ष हैं इस पर बहस हो सकती है लेकिन स्वंय् हिन्दू-मुस्लिम समाजों को एक दूसरे के प्रति सहिष्णु होना होगा इसमें कोई संदेह नहीं है । इसका उपाय यह हो सकता है कि उदारवादी शिक्षित व प्रगतिशील मुस्लिम नेतृत्व आगे आए और हिन्दुओं की उदारता व सहिष्णुतता का सम्मान करे व मुस्लिम समाज में जन जन तक यही भावना पहुंचाए । प्रगतिशील हिन्दुओं को इससे बल मिलेगा, उनकी शक्ति दूनी होगी और दोनों समाजों को निकट लाने में अपेक्षाकृत अधिक सफल होंगे । यदि इस तरह की पहल हो पाती है तो विद्वानों, साहित्यकरों, समाजशास्त्रियों, कलाकारों आदि के गैर राजनीतिक संगठन भी सक्रिय किये जा सकते हैं ।
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