Wednesday, February 8, 2012

परंपराओं की बिल्ली


            
आलेख 
जवाहर चौधरी 


    पुराने समय में एक पंड़ितजी जब पूजा करने बैठते तो उनकी पालतू बिल्ली उनके आपपास बनी रहती, कभी गोद में बैठ जाती, कभी पूजा सामग्री की ओर लपकती । पंड़ितजी पूजा पर बैठते और पहले एक टोकरी से बिल्ली को ढंक देते । बिल्ली बंद रहती और उनकी पूजा निर्बाध संपन्न हो जाती । अचानक उनका देहांत हो गया । कुछ दिनों के बाद पूजा पुनः आरंभ करना थी । पुत्र ने बड़े परिश्रम से बिल्ली को पकड़ा , टोकरी में बंद किया और पूजा की । हर दिन पूजा से ज्यादा समय उसे बिल्ली को पकड़ने में लगाना पड़ता था क्योंकि बिल्ली उसे देखते ही दूर भागती थी । 
                कोई कार्य रूढ़ हो कर कब हमारी चेतना में  जगह बना लेता है , अक्सर हम जान नहीं पाते । विवेक और विज्ञान को अपनी शक्ति  का ज्यादातर भाग पिछले कामों को देखने-समझने और जांचने में खर्च करना पड़ता है । भारत में एक सामान्य परंपरा है कि जब किसी की मृत्यु होती है तो दरवाजे पर कंडे या उपले को जला कर रख दिया जाता है । शवयात्रा के साथ आगे आगे उस जलते उपले को ले कर चला जाता है । उस उपले से बड़े प्रयासों के बाद चिता की अग्नि प्रज्वलित की जाती है । नगरों / महानगरों में भी यही किया जाता है । इसके कारणों के विषय में कहीं कोई जिज्ञासा या प्रश्न  नहीं होता है ।
                  पुराने समय में ‘आग’ माचिस में सुलभ नहीं थी । बड़े परिश्रम और जतन से उसे ‘पैदा’ किया जाता था । रसोई बनाने के बाद चूल्हे में अंगारों को दबा कर रखा जाता था ताकि जरूरत पड़ने पर दोबारा उसी से ‘आग’ पैदा की जा सके । इस तरह चूल्हा हमेशा  आग समेटे गरम रहता था । घर में किसी की मृत्यु होते ही परिजन चूल्हे से आग निकाल कर उपले के साथ दरवाजे पर रख देते थे । चूल्हा ठंडा हो जाता था । ‘चूल्हा ठंडा होना’  शोक सूचक शब्दों  की तरह प्रयुक्त होते थे । शोक  प्रायः तीन दिन, तेरह दिन और कहीं कहीं सवा महीना या चालीस दिनों का होता है । तीन दिनों तक घर का चूल्हा नहीं जलता था । पास पड़ौस या संबंधीजनों के यहां से उपलब्ध कराए भोजन का उपयोग होता है । बाद में बहन-बेटियां और रिश्तेदार  घर का चूल्हा जलवाते थे । ‘चूल्हा जलवाना’ शोक  निवारण की महत्वपूर्ण प्रक्रिया माना जाता था । अब चूल्हे में पहले की तरह ‘आग’ है , वह गरम है अर्थात् जीवन की सामान्य गतिविधियां पुनःस्थापित हो गईं ऐसा माना जाता था । 
                 आज के समय को देखें तो अग्नि को प्रज्वलित करने में कोई कठिनाई नहीं है । न ही घरों में परंपरागत चूल्हे दिखाई देते हैं , कम से कम नगरों में तो नहीं । गांवों में हैं भी तो उन्हें गरम रखने की आवश्यकता  अब समाप्त हो चुकी है । लोग कुकिंग गैस या बिजली से भोजन पकाते हैं । शिक्षा , समझ और आधुनिकता के मामले में नगरीय समाज तीव्र गतिशीलता  रखता है । लेकिन नगरों में, जहां उपले सहज नहीं मिलते हैं, शोक  के समय इन्हें ढूंढ़ कर जुटाया जाता है । उसे घासलेट या पेट्रोल  डाल कर माचिस से जलाया जाता है और दरवाजे पर रखा जाता है । बिना यह सोचे कि आज इस उपक्रम का कारण और जरूरत क्या है !! 
                     आज की पीढ़ी में जिज्ञासा और चेतना अधिक है । अगर परंपराएं थोथी हैं या अप्रासंगिक हो गईं हैं तो बिना सोचे उसे ढ़ोते जाना हमारे अविवेकी  होने को प्रमाणित करता है । यदि हम नई पीढ़ी के सामने अपने को इसी तरह प्रस्तुत और प्रमाणित करेंगे तो उनसे सम्मान की आशा  करना उचित नहीं है । हमारी अगली पीढ़ी बिल्ली पकड़ने के लिए नहीं होना चाहिए । 

Wednesday, November 23, 2011

* मैं पेड़ होना चाहता हूं .


           

आलेख 
जवाहर चौधरी 

 मुझे नहीं मालूम कि पेड़-पौधों का कोई परिवार होता है , जैसा कि हमारा होता है । यों देखा जाए तो शायद  होता होगा । बीज कैसे आते हैं ! अगर हम अपने जैसा हिसाब उन पर लगाएं तो लगता है पेड़ों के माता-पिता होते हैं, भाई-बहन होते हैं और पुत्र-पुत्री भी । पेड़ों की जाति होती है, उनका समाज भी होता होगा । जब इतना सब है तो उनमें संवाद होता होगा, उनकी कोई भाषा भी होगी, भावनाएं होंगी, उनके सपने भी होते होंगे, किसको पता ! लोग कहते हैं कि वे पेड़ों से बातें किया करते हैं । वे हमारे सुख-दुःख के साथी भी मानें जाते हैं । कई बार पेड़ों से नातेदारी होती है और निबाही भी जाती है । पेड़ों से शादियां करने की खबर आज भी सुनने में आती है । पेड़ कहीं पुरखों की भूमिका में होते हैं कहीं उनसे भी बड़े । उनकी पूजा की जाती है, आशीर्वाद  लिए जाते हैं, उनसे कुछ मांगा भी जाता है । मनुष्य के साथ पेड़ों का नाता जन्म के साथ झूले / पलने से आरंभ होता है और चिता तक बना रहता है । कबीर ने ‘देख तमाशा  लकड़ी का’ गा कर पेड़ों की महिमा का बखान किया ही है ।
                    मैं अपने सामने, आंगन में लगे एक पेड़ को बहुत देर से देख रहा हूं । मैंने ही लगाया था कहीं से ला कर , शायद खरीद कर । यह शुरू  से अकेला है , पता नहीं इसका कौन है ! न जाने इसके जन्मदाता कहां हैं, ... और बच्चे भी ! मौसम आते हैं और हर बार यह यांत्रिकता से हरियाता है , फूलता है, फलता है । फिर अकेला हो जाता है । मैं पूछना चाहता हूं इससे, कहां है तेरे पिता , कहां है पुत्र ? और एक निरर्थक कहानी सी धुंधियाने लगती है हवा में, जिसके आरंभिक और अंत के पृष्ठ कोई फाड़ ले गया है । उत्तर में वह पेड़ धरती और आकाश  को नाप देता है । हवा, प्रकाश  सबके नाम बता देता है। विश्वास -अविश्वास  के असंख्य पत्ते झरने लगते हैं । आज लिखते समय भी लग रहा है कि मैं अपने को बहला ही रहा हूं । बहलाने वाला ‘मैं’ और न बहलने वाला ‘मैं’, दो अलग इकाइयां खड़ी हो रही हैं । इन दोनों को महसूस करता एक तीसरा ‘मैं’ भी मौजूद है, लग रहा है खण्ड-खण्ड हो रहा हूं । हंसते, गाते, रोते, रीझते, खीझते मैं ही मैं हूं । ‘मैं’ की एक भीड़ होती जा रही है ... भीतर । अकेला पेड़ सामने हैं लेकिन एक जंगल पसर गया है अंतस में । अपने ही जंगल में भटकता, भ्रमित होता अक्सर बेचैन महसूस करता हूं । अकेले में अपने से ही डरता हूं और ऐसी जगह भाग जाना चाहता हूं जहां मेरा ‘मैं’ न हो । न मेरी धड़कनें, न सांसें, न स्मृतियां, न दुःख । जैसे सन्यासी त्याग कर चले जाते हैं संसार को कंदराओं में , न लौटने के निश्चय  के साथ। किसी सूनी घाटी में जैसे एक पेड़ खड़ा हो जीवित, निर्जीव सा ।
                  मैं पेड़ होना चाहता हूं , ताकि जब लौटूं इस संसार से स्मृतियां साथ न हों , न शिकायतें  किसी से, और न हिसाब लिए-दिए का । क्योंकि शायद  पेड़ों की स्मृतियों में कोई नहीं होता । वे बिना यादों के आते हैं और सब भूल कर जाते हैं ।

Wednesday, October 19, 2011

एक लापरवाह कौम की भाषा चेतना !


                             

आलेख 
जवाहर चौधरी 

केन्द्र सरकार की चिंता यदि यह है कि राष्ट्र्भाषा हिन्दी को क्लिष्ट और लगभग अव्यवहारिक अनुवादों से बाहर निकाल कर सरल व सुबोध बनाया जाए, तो हाल ही में राजभाषा विभाग द्वारा प्रशासनिक  विभागों को जारी किए गए उसके परिपत्र का स्वागत किया जाना चाहिए । कोई भी भाषा जनस्वीकृति और लोकव्यवहार से विकसित और समृद्ध होती है । किसी जमाने में संस्कृतियां स्थानीय होती थीं । भारत में तो कहा ही जाता था कि ‘चार कोस में बदले पानी और आठ कोस में बानी’ । यातायात और संचार साधनों के विकास से संस्कृतिक आदान-प्रदान सुगम होता है, और शब्दों  का लेन-देन निर्बाध । जिन देशों  में विदेशी  ताकतों का शासन  रहा हो वहां सत्ता पक्ष का की भाषा के शब्द  तेजी से फैल कर स्थानीय भाषाओं में और लोकव्यवहार में अपनी जगह बना लेते हैं । यह स्वाभाविक प्रक्रिया है । यही कारण है कि हिन्दी में अरबी, फारसी, उर्दू और अंग्रेजी के शब्द स्वीकृत हैं । शासकीय  कामकाज के स्तर पर अनुवादक जिस हिन्दी का प्रयोग करते हैं वो प्रायः जटिल और हास्यास्पद हो जाती है । हिन्दी सरल इसलिए भी है कि इसमें भारत की अनेक भाषाओं, बोलियों के शब्द सम्मिलित हैं । इसलिए मराठी, पंजाबी, बंगला , उर्दू तमिल, तेलुगू आदि बोलने वालों को भी बिना किसी अतिरिक्त प्रयास के हिन्दी में  अपनेपन के अंश  मिल जाते हैं । भाषा का यही गुण उसे समृद्ध और दीर्घजीवी बनाता है । 
                        कुछ शुद्धतावादी भाषा-चिंताकारों को लगता है कि अंग्रेजी के शब्द को शामिल  करने की सरकारी इजाजत से भाषा मर जाएगी या हिन्दी कुछ दिनों में हिंग्लिश हो जाएगी । वे मानते हैं कि किसी यह अन्तराष्ट्रीय षड़यंत्र के तहत हो रहा है । माना कि ऐसा हो रहा है तो क्या हम किसी समुदाय को उसके भाषा प्रचार या विकास से रोक लेंगे ? किसी भाषा के विस्तार में कई चीजें काम करती हैं, जिसमें भाषा का अपना आभामंडल बहुत प्रभावी होता है । सरकार ने कहीं आदेश नहीं निकाला है कि हम अपने बच्चों को अंग्रेजी माध्यम में पढ़ाएं । बल्कि विशेषज्ञों  की राय तो यही है कि प्रथमिक शिक्षा  मातृभाषा में दी जाना चाहिए । लेकिन हो क्या रहा है ? हिन्दी स्कूल सरकारी हैं और लगभग खाली पड़े हैं । निजी स्कूलों में अंग्रेजी माध्यम है और जगह नहीं है । हमारे अंग्रेजी आतंक के कारण गली गली में अंग्रेजी माध्यम की दुकानें चल रही हैं ! पिछले छः दशकों से लगातार अंग्रेजी के शब्द लोकव्यवहार में आ रहे हैं । यह एक कड़वा सच है कि देश अपनी अगली पीढ़ी इंग्लिश मीडियम स्कूलों में गढ़ रहा है । खुद भाषा के चिंताकारों में आत्मविश्वास  नहीं है कि इनमें से अधिकांश अपने बच्चे अंग्रेजी स्कूलों में पढ़वा रहे हैं । माना कि शिक्षा  और करियर की विवशता के चलते उन्हें ऐसा करना पड़ रहा है लेकिन दैनिक व्यवहार में अंग्रेजी के आग्रह की प्रवृत्ति किस मंशा  से पाले हुए हैं वे !? इंग्लिश मीडियम स्कूल के एक अध्यापक  ने बताया कि स्कूल परिसर में हिन्दी बोलने पर प्रतिबंध और दंड के प्रावधान से डर था कि पालक इसका विरोध करेंगे । किन्तु आश्चर्य  कि इसी वजह से उनका स्कूल प्राथमिकता में आ गया ! जब कोई कौम अपनी भाषा को लकर खुद सचेत नहीं है और उसमें पल रहे भाषा-चिंताकार भी नकली हों तो अन्य चीजों की भांति भाषा भी भगवान भरोसे ही रहेगी । भाषा के जरिए विशेष  हो जाने की मंशा  को अधिक दिनों तक छुपाना संभव नहीं दिखता है । 
                                     केवल स्कूलों की बात ही नहीं है, पत्र-पत्रिकाओं और किताबों की ओर देखें । 60 करोड़ हिन्दी जानने वालों के देष में हिन्दी की किताबों के संस्करण एक हजार प्रतियों से कम के हो रहे हैं । कहने को षिक्षा का प्रतिषत बढ़ा है लेकिन हिन्दी के पाठक कहां हैं ? मात्र दो प्रतिशत अंग्रेजी जानने वालों के बीच अंग्रेजी की किताबें लाखों की संख्या में बिक जाती हैं ! 
                               क्यों नहीं समस्या की जड़ की ओर ध्यान दिया जाता है । स्कूलों से संवाद हो और हिन्दी के प्रति उनके नजरिए को बदलने का प्रयास किया जाए । भले ही पढ़ाई का माध्यम अंग्रेजी हो लेकिन हिन्दी को असफलता से जोड़ कर देखने-दिखाने की प्रवृत्ति पर रोक लगे । स्कूल की तमाम दूसरी गतिविधियां हिन्दी में संचालित हों और बच्चों को अपनी राष्ट्र्भाषा के निकट आने में मदद की जाए । देश हर एक को अपनी बात कहने का अधिकार देता है लेकिन राष्ट्र्भाषा को अपमानित करने की इजाजत तो किसी को नहीं होना चाहिए । प्रथमिक स्तर की शिक्षा  के लिए पचास हजार से एक लाख रुपए तक की फीस वसूलने वाले स्कूलों को सरकारी अनुदान की जरूरत भले ही न हो पर उन्हें शासकीय  आदेश तो मानने ही होंगे । 

                                                                          ---

Monday, September 19, 2011

वही नहीं थे महफिल में , जिनसे चिराग रौशन रहे ...


                  
आलेख 
जवाहर चौधरी 

         हाल ही में एक अखबार ने इस बात के लिए जश्न  मनाया कि उसकी प्रसार संख्या में काफी इजाफा हुआ है । पाठक संख्या , जैसा कि उनका अनुमान है , दुगनी हो गई है । अखबार के अनेक संस्करण निकाले जा रहे हैं । पृष्ठों की संख्या भी पहले से अधिक है । बरसों पुराने , बूढ़े हो चुके पाठकों के अलावा नए और युवा पाठक भी बड़ी संख्या में जुड़ चुके हैं । ऐसे लेखक जिनकी पहचान राष्ट्रिय  स्तर पर है , अब इस अखबार के लिए लिख रहे हैं । यही नहीं अखबार का दावा है कि वह नए लेखकों और स्थानीय भाषा के विकास के मामले में उदार है । पाठकों को अच्छी और पठनीय सामग्री मिले इसके प्रति गंभीरता का उसका दावा हमेशा  नारे की तरह होता है ।
                 सफलता का यह जश्न  एक बड़े होटल में अयोजित था । दूसरे दिन बड़े बड़े फोटो तीन पेज में लगा कर पाठकों को इसकी जानकारी दी गई । अतिथियों में सारे लोग विज्ञापनदाता थे । यही नहीं हरएक फोटो के नीचे लिखा हुआ था कि ये साहब फलां कंपनी के हमारे विज्ञापनदाता हैं । कई विज्ञापन एजेन्सियों के विकास पुरुष महामहिम की सी मुद्रा में दिखाए गए थे । अखबार का सारा कुछ विज्ञापन के आसपास का था और उनके बीच अखबार के प्रतिनिधि पुलकित और बिछे जा रहे दिख पड़ रहे थे ।
                   सवाल यह है कि जब एक अखबार अपनी सफलता का जश्न मनाता है तो पाठकों को क्या यह सन्देश  देना भी जरूरी है कि उनके लिए केवल विज्ञापनदाता ही सबकुछ हैं ! अखबार में विज्ञापन ही होते हैं क्या ! क्या वे जानते हैं कि ज्यादातर लोग पूरे पृष्ठ पर छपे विज्ञापन को देख कर कुपित होते हैं और प्रायः बिना पढ़े उसे पलट देते हैं । जैसे कि टीवी पर विज्ञापन आते ही नब्बे प्रतिशत  लोग म्यूट कर देते हैं । माना कि अखबार चलाने वालों के लिए विज्ञापनदाता मांईं-बाप होते हैं लेकिन अन्य महत्वपूर्ण घटकों की उपेक्षा करना क्या सन्देश  देता है । अखबार के वे लेखक क्यों नहीं थे जश्न में जिन्हें पढ़ने के लिए पाठक अखबार खरीदता है । वे संपादक, पत्रकार और कालमिस्ट भी नजर में नहीं आए जिनसे अखबार इतना लोकप्रिय हो सका ! प्रायः हर अखबार में लिखने वाले स्थायी होते हैं भले ही वे उसमें नौकरी नहीं करते हों । वे पाठकों की पसंद होते हैं और अखबार की प्रतिष्ठा भी बढ़ाते हैं । लेकिन जब जश्न मनाना हो , सफलता प्रदर्षित करना हो तो इन्हें अनदेखा करने की प्रवृत्ति आम है । पाठकों से मालिक क्या अपनी यह कृपणता अधिक दिनों तक छुपा पाएंगे ?

Thursday, July 28, 2011

* सपने देखने का समय ---


आलेख 
जवाहर चौधरी 


                इच्छाएं , अभिलाषाएं या सपने ही हमारे होने को जीवन के दायरे में लाता है । बिना सपनों के मनुष्य-जीवन का आरंभ ही कहां होता है ! मात्र सांसें लेने और भूख-प्यास मिटा लेने का नाम जीवन तो नहीं है । पिछली पीढ़ी यानी माता-पिता, शिक्षक , महापुरूष आदि युवा आंखों में सपने इसलिये बोते हैं कि हाड़ मांस के इन तरूवरों में सार्थकता के पल्लव फूटें । सपनों के बिना भविष्य संदिग्ध है फिर चाहे वो व्यक्ति का हो, समूह का हो या फिर राष्ट्र् का ही क्यों न हो ।
क्रांतिकारी कवि पाश  सपनों को यानी अभिलाषाओं , इच्छाओं को सबसे जरूरी मानते हैं । उन्होंने लिखा है --

मेहनत की लूट ... सबसे खतरनाक नहीं होती
पुलिस की मार ..... सबसे खतरनाक नहीं होती
गद्दारी-लोभ की मुट्ठी .... सबसे खतरनाक नहीं होती
बैठे बिठाए पकडे़ जाना ..... बुरा तो है 
पर सबसे खतरनाक नहीं होता 
सबसे खतरनाक होता है ....
मुर्दा शांति  से भर जाना  
न होना तड़फ का ... सब सहन कर जाना
सबसे खतरनाक होता है 
हमारे सपनों का मर जाना

          जब सपने मरते हैं तो सभ्यता पर विराम लगने लगता है । सपने सभ्यता के पहिये हैं । अभिलाषा ही हमारे उद्देश्य व लक्ष्य तय करती है । कहते हैं - जहां चाह होती है , वहां राह होती है । यदि चाह ही नहीं है तो राह हो भी तो नहीं के समान है । गांधीजी ने मन , वचन और कर्म का महत्व बताया था । कोई बात सबसे पहले मन में आना जरूरी है , इच्छा करना आवश्यक  है, उसके बाद ही वो वचन या कर्म में बदलती है । जब कामना ही नहीं होगी तो कर्म कैसे होगा । ईश्वर  कहता है - आरजू कर , हक जता , हाथ बढ़ा और ले जा ।
विद्यार्थी जीवन सपने देखने और उन्हें सच करने के लिये स्वयं  को तैयार करने का समय होता है ।  वो जवानी जवानी नहीं है जिसकी आंखों में सपने और दिल में हौसले नहीं हों । दुष्यंत कुमार की पंक्तियां किसे याद नहीं है -
कौन कहता है आसमान में सूराख हो नहीं सकता
एक पत्थर तो तबियत से उछालो यारों 
           सपना ऐसा ही होना चाहिये - आसमान में सूराख करने का और हौसला भी उतना ही बुलंद । हमारे पूर्व राष्ट्र्पति डा . अब्दुल कलाम देश  के युवाओं को सिर्फ एक ही बात कहते हैं कि सपने देखो , बड़े सपने देखो , इच्छाएं-अभिलाषाएं रखो और उन्हें पूरा करने की चुनौती स्वीकारो । आज देश  युवाओं से सपने देखने की मांग कर रहा है ।
इस शेर  को भी हमने कई बार पढ़ा-सुना होगा -
खुदी को कर बुलंद इतना कि हर तकदीर से पहले
खुदा बंदे से पूछे .....बता तेरी रजा़ क्या है 

Wednesday, July 20, 2011

* Mumbai terrorist attacks / कायर आतंकी हमले करते हैं और समर्थ सदा शांतिवार्ताएं !!

                
आलेख 
जवाहर चौधरी 
 बम विस्फोट के तत्काल बाद लहुलुहान जनता पर        धमाकेदार बयानों का हमला हुआ । लोग पहले की अपेक्षा दूसरे हमले से ज्यादा घायल हुए और उनका ध्यान आतंकवदियों से कुछ देर के लिए हट गया । पहले हमलावर गायब हो गए और दूसरे सुर्खियों में आ गए, दोनों की इच्छा पूरी हुई । सुर्खियां लोकतंत्र के बाजार में बड़ी पूंजी है, चुनाव ज्यादा दूर नहीं हैं । नए सूट आदि सिलवा कर वे अब शांतिवार्ता के लिए तैयार होंगे । परिधान अच्छे और नए हों तो हमारा मन प्रसन्न और सामने वाला शांत  रहता है ।  शांतिवार्ता के पहले एक वातावरण बनाना पड़ता है । शांतिवार्ता करना मात्र कबूतर उड़ाना नहीं है सुबह सुबह , वातावरण बनाने  के लिए मुर्गे भी उड़ाना पड़ते हैं रात को । वे लोग धमकों से आतंक का वातावरण बनाते हैं और हम शांतिवार्ता करके चट-से उस पर पानी फेर देते हैं । शांतिवार्ता दिमाग का खेल है और दुनिया जानती है कि हमारे पास दिमाग है । हमने दुनिया को हिसाब लगाने के लिए शुन्य  दिया और खुद धीरे धीरे एक सौ इक्कीस करोड़ हो गए । एक धमाके में वे सौ-दो सौ मारते हैं जबकि हमारे यहां मात्र पांच मिनिट में दो सौ से ज्यादा आबादी बढ़ जाती है । हमारा सिद्धान्त है कि कोई एक गाल पर थप्पड़ मारे तो तुरंत दूसरा गाल आगे कर दो । सरकार के पास अपना पक्ष मजबूत करने के लिए अब दो सौ बयालीस करोड स्वदेशी  गाल हैं, ‘मेड इन इंडिया’ । और क्या चाहिए अहिंसा समर्थक सरकार को ! राज की बात बतांए ? बिगड़े हुओं से बार बार शांतिवार्ता करो तो वे पागल हो जाते हैं और फिर अमेरिका जैसे म्यूनिसपेलिटी वाले रैबिज से बचाव के नाम पर उन्हें आसानी से मार भी देते हैं । हींग लगे न फिटकरी और रंग भी आए चोखा । अहिंसक के अहिंसक रहे और निबटा भी दिया । अपनी अपनी राजनीति है प्यारे । है कि नहीं ? 
            जनता को समझना होगा कि शांतिवार्ता हमारी सर्वाधिक महत्वपूर्ण विदेश नीति है । हमने युद्ध से ज्यादा शांतिवार्ताएं लड़ी हैं, अंदर भी और बाहर भी । सरकार एक बार शांतिवार्ता पर उतारू हो जाती है तो फिर अपने आप की भी नहीं सुनती है । अभी एक बाबा से शांतिवार्ता की, मात्र दो दिन में उनकी उमर दस साल बढ़ गई और समर्थक चौथाई  रह गए । इसके बाद सामने वाला हमले भले ही करता फिरे , युद्ध नहीं कर सकता । दरअसल इसमें हमारी कूटनीति  है, सीमापार वाले शांतिवार्ताएं करना चाहते नहीं, क्योंकि उन्हें वार्ता करना आती नहीं है और हम उन्हें शांतिवार्ता के मोर्चे पर बुला कर बार बार पटकनी मारते हैं । अभी देखो, इधर धमाके हुए उधर फट्ट-से हमने चेतावनी दे दी कि शांतिवार्ता पर धमाकों का कोई असर नहीं होगा । सुनते ही उनको सांप सूंघ गया होगा । पिछली बार उन्होंने छाती ठोक के सबूत मांगे थे , हमने ढ़ेर सारे दे दिए, आज तक उसकी छानबीन में लगे हैं और माथा ठोक रहे हैं । 
कायर हमेशा  आतंकी हमले करते हैं और समर्थ सदा शांतिवार्ताएं । जाहिर है कि हम समर्थ हैं ।

Monday, July 11, 2011

.. चला गया वह ....प्यार भरे दिल के साथ ... बिना कुछ कहे-सुने .

भले तुम दूर चले गए हो फिर भी मेरे साथ ही हो
तुम्‍हारे प्‍यार की सांसों को महसूस करती हूं मैं
उदास उसांसों के साथ घिरती है रात
और हम दोनों के बारे में बातें करती है
जो कुछ भी था तुम्‍हारे और मेरे बीच इस क़दर शाश्‍वत

कि अलविदा के बारे में हम कभी सोच भी नहीं सकते
तुम इस समंदर और उस सितारे के बीच रहोगे
रहोगे मेरी नसों के किनारों पर
कुछ मोमबत्तियां जलाऊंगी मैं और पूछूंगी ईश्‍वर से
कब लौटकर आ रहे हो तुम...

[ कवि श्री गीत चतुर्वेदी द्वारा किया गया अनुवाद अंश .]

Tuesday, July 5, 2011

* जल्दी से बुड्ढा-डोकरा हो जाए !!


आलेख 
जवाहर चौधरी            

  बहुत वर्ष हुए नानी को सिधारे । जब भी मुलाकात होती थी, खूब लाड़ करती थीं और आशीष  देती थीं कि ‘जल्दी से बुड्ढा-डोकरा हो जाए ’ । तब इतनी तो समझ थी ही कि बुड्ढा-डोकरा होना कोई अच्छी बात नहीं है । खुद नानी इस हाल में आश्रित सी थीं तो फिर ये कैसा आशीर्वाद  ! मैं विरोध जताता कि नानी ऐसा मत बोला करो । जवाब में वे कहतीं कि ‘अभी नहीं समझेगा तू ’ ।

            आज जब साठवां गुजर रहा है तो छः दशकों  की बीती नजरों के सामने दौड़ जाती है । कितना लंबा वक्त लगा यहाँ तक पहुंचने में और किस तरह ! वो भी देखना पड़ा जिसकी कल्पना नरक में भी नहीं हो सकती । लेकिन उस सब का जिक्र नहीं करूंगा । क्योंकि दुःख की दुकान नहीं होती, दुःख का बाजार नहीं सजता और न ही किसी के लिए दुःख का कोई मूल्य होता है । लेकिन भुगतना तो पड़ता ही है .जीवन संघर्ष में बिना जख्मी हुए कोई बुड्ढा-डोकरा नहीं हो सकता है . हालांकि कहा जाता है कि सुख बांटने से बढ़ता है और दुःख बांटने से घटता है । लेकिन आज के भागते युग में किसके पास समय  है । रिश्ते  अजब गणितों में बदल गए है । अगर आप सुखी हैं तो दुनिया दुःखी है और इसका विपरीत भी होता है  । यानी दुनिया सुकून से है यदि आप दुःखी हैं । इन हालात में कौन किसका दुःख बांटने खड़ा हो पाता है, यदि मजबूरी न हो । यों देखा जाए तो कोई सुखी नहीं है । हरेक के जीवन में दुःख हैं, इसलिए किससे आशा कीजिये  । इसलिए बुड्ढा-डोकरा हो जाना सुकून की बात भी है . बहुत कम लोग होते हैं जो समय की गुफा के सामने अलीबाबा होने का अवसर पा जाते हैं । नानी के आशीषों  का मतलब और गालिब का यह शेर  अब समझ में आ रहा है । 



कहूं किससे मैं कि क्या है, शब् -ए-गम बुरी बला है
मुझे क्या था मरना, अगर एक बार होता 

Thursday, May 26, 2011

जाहिर है तेरा हाल सब उन पर , कहे बगैर.


                        
आलेख 
जवाहर चौधरी 

     कल मैं बहुत देर तक गेट पर इंतजार में खड़ा रहा कि कोई निकले तो उसे चिठ्ठियां दे दूं कहीं लाल डिब्बे में डालने के लिए । निकले कई नौजवान पर बाइक पर सवार , लगभग उड़ते हुए । कोई पैदल या सायकल पर नहीं निकला । लगा जैसे नौजवानों ने पैदल चलना ही छोड़ दिया है । सायकल तो खैर अब शान  के खिलाफ है । फटी जीन्स फैशन  हो सकती है लेकिन सायकल नहीं । 
                  मुझे याद आया पचास वर्ष पहले का समय , तब जनसंख्या कम थी साधन सुविधा भी न्यून थे । लेकिन किसी वरिष्ठ  नागरिक को किसी काम के लिए ज्यादा देर तक बाट जोहने की जरूरत नहीं पड़ती थी । घरों में बच्चे खूब थे , किसी को भी पुकारो और काम कह दो , हो जाता था । हम लोग ही दौड़ कर काम कर आते थे । इसमें कुछ भी विशेष  नहीं था । अब घरों में एक-दो बच्चे हैं , जाहिर है बड़े कीमती हैं । इतने कि दूसरे इनसे ‘हेल्लो’ कर सकते हें कोई काम नहीं कह सकते । खुद मां-बाप भी उनसे काम नहीं लेते हैं , करियर का ध्यान है । अब बच्चे पैदा होते ही कुछ बनाए जाने का ‘कच्चा सामान’ हो जाते हैं । उनका वक्त मां-बाप के वक्त से ज्यादा कीमती है ।
                शाम  को मित्र आए , चर्चा में उन्हें दुखड़ा रोया । वे बोले - चिठ्ठी तो ठीक है अब दवा ला देने वाला भी नहीं मिलता है यार ।
             ‘ फिर तुम क्या करते हो ? ’ मैंने पूछा ।
             ‘‘ इंतजार करता हूं । तुम भी इंतजार किया करो । इंतजार करने का मजा कुछ और होता है । समझे ?
और गालिब के इन शेरों पर गौर कीजिए जरा --
गालिब , न कर हुजूर में तू बार बार अर्ज 
जाहिर है तेरा हाल सब उन पर , कहे बगैर

काम उससे आ पड़ा है, कि जिसका जहान में
लेवे ना कोई नाम, सितमगर कहे बगैर 

Friday, May 6, 2011

अधिकारी आवास परिसर में महंगाई !!




आलेख 
जवाहर चौधरी         

       उन्होंने रविवार सुबह साढ़े दस बजे चाय पर आमंत्रित किया । मेरे पुराने परिचित, जो मित्र ही होते यदि नौकरी के चलते बाहर चले नहीं गए होते । किस्मत जोरदार थी उनकी कि बैंक में अधिकारी लगे । बैंक का अधिकारी होना उनदिनों हमारे तरफ वैसी घटना थी जो यदाकदा ही घटित होती है । पहली नियुक्ति छोटी जगह मिली, लेकिन बंगला बैंक ने उपलब्ध कराया । चपरासी पूरे समय घर के लिए नहीं था किन्तु काफी समय के लिए होता था ।शुरुवात  में दो चार बार फोन पर इन सब आनंद-मंगल की बातें हुई, बाद में रुकावटें आने लगीं । शादी  बड़े घर में ही होना थी क्योंकि उन दिनों भी अधिकारी-लड़के बड़े घर वाले ही अफोर्ड कर पाते थे । पत्नी आई तो अपने साथ पूरा संसार ही ले आई । इसके बाद वे यहां-वहां स्थानांतरित होते रहे । उनकी खबर मिलना बंद हो गई । 

                अर्से बाद हमारे शहर  में बड़े अधिकारी के रूतबे के साथ उनका तबादला हुआ । बड़े नगरों में प्रायः बैंकों के अपने आवासीय परिसर होते हैं । जहां तमाम बैंक अधिकारी निवास करते हैं । परिसर का रखरखाव बैंक के जिम्मे है सो सुन्दर बगीचा और सीमेंट के प्री-कास्ट रंगीन ब्लाक्स से सज्ज्ति ऐसा मनोरम वातावरण कि माहल्ले में रहने वाले मित्र की हैसियत गिर कर सुदामा-सुदामा याद करने लगे । मुख्य द्वार पर आलीशान  शिलालेख, जिस पर पीली घातु से उभरे अक्षरों में लिखा है ‘फलांबैंक अधिकारी आवास परिसर’ । बगल के झरोखे युक्त शेड  में वर्दीधारी चौकीदार  जिसके हाथ में परिसर की धाक बढ़ाती बंदूक । मंगते-भिखारी, सेल्समेन, गाय-कुत्ते वगैरह की तो बात ही क्या , स्कूटर से आने वाले आगंतुक को भी बताना होता है कि उसे किन ‘साहब’ से मिलना है और नाम व स्कूटर का नंबर दर्ज करने के बाद अंदर जाने की इजाजत होती है ।
मैं ठीक साढ़े दस बजे पहुंचा , औपचारिक बाधाओं को पार करता उनकी नेमप्लेट के नीचे लगी कालबेल का बटन अभी दबाया ही था कि एक झक्क सफेद पामेरेरियन भौंकता जाली के पीछे से पंजा मारने लगा । आसपास खिड़कियों से कुछ जोड़ा मादा निगाहें मुझ पर गड़ीं लेकिन जल्द ही हट भी गईं । जब पामेरेरियन पर्याप्त भौंक चुका , अंदर से एक रौबदार जनाना आवाज ने उसे रुक जाने का आदेश  दिया और वह ऐसे रुका जैसे बैटरी चलित खिलौने का स्विच-आफ कर दिया गया हो । दरवाजा खुलने पर मैंने अपना नाम बताया बदले में उन्होंने चौकानें  और प्रसन्न होने के मिश्रित भाव से स्वागत किया । ये ‘भाभीजी’ हैं, इनसे पहले दो-तीन बार संक्षिप्त मुलाकातें हुई हैं । बोलीं - ‘‘ ये बोले थे कि साढ़े दस का टाइम दिया है पर वो टीचर हैं, ग्यारह से पहले नहीं आएंगे । ’’
इसका क्या जवाब हो सकता था ! उफ् ! टीचर की इमेज !
‘‘ इसलिए मैं भी दूसरे काम निबटा रही थी, आज संडे है ना बड़ा बीजी दिन होता है । ’’
‘‘ सारी ...., आगे से टीचरों की इमेज का ध्यान रखूंगा । ’’
‘‘ अरे नहीं , आप बैठिए न , आते ही होंगे । ’’
‘‘ कहीं गए हैं ?!!’’
‘‘ आज संडे है ना , सब्जी लेने मंडी जाते हैं । ’’

                यहां सब अधिकारी हैं, सब के पास कार, सब समृद्ध, सबके पर्स में बड़ा वेतनमान, सबके बड़े बंगले, बड़े बैठक कक्ष, माटे मोटे बड़े सोफे, बड़े एलसीडी, कोने में निजी बार से झांकती बड़ी बड़ी बोतलों के सुन्दर कैप और घूमते पंखों के बीच अटल एसी । हुसैन-बेन्द्रे की पेटिंग्स और किसी अनचीन्हे राजे-रजवाड़े का एक पोट्रेट  जो शायद  अब बैठक में ‘साहब’ के पुरखे की भूमिका अदा कर रहा है ।
‘‘ यहां सब्जी वाला नहीं आता है ? ’’
‘‘ आता तो है, पर ये लोग तो लूटते हैं ! भाई साब कोई सब्जी आठ-दस रुपए पाव से कम नहीं मिलती है । ’’
‘‘ आजकल मंहगाई बहुत बढ़ गई है । ’’
‘‘ हमें भी ऐसा ही लगता था । पर पता चला कि मंडी में बड़ी सस्ती है । ’’
‘‘ अच्छा !! ’’
‘‘ संडे छुट्टी रहती है तो चार-पांच आफिसर एक कार में चले जाते हैं । ’’
‘‘ इससे तो पेट्रोल  की बचत होती है । ’’
‘‘ हाँ  , और सब्जी भी थोक के भाव ले आते हैं । ’’
‘‘ थोक के भाव !!!’’
‘‘ भाई साब एक बड़ा सा कद्दू बीस रुपए में मिल जाता है, कम से कम पंद्रा किलो का ....’’
‘‘ सिर्फ बीस रुपए में !!!’’ हमने शिष्टाचारवश  चकित होते रहना जारी रखा ।
‘‘ हां , ... और टमाटर , गोभी, बैंगन, लौकी सब टोकरी से खरीद लो । धनिया कितना मंहगा है ! वहां दस-बारह किलो की एक पोटली धनिया सात-आठ रुपए में मिल जाता है । ’’
‘‘ अच्छा !!!’’
‘‘ बस घर ला कर बराबर बाँट  लो आपस में । हप्ते भर की सब्जी हो जाती है मजे में । ’’
‘‘ सो तो ठीक है भाभीजी , लेकिन अगर सब लोग ऐसा करेंगे तो फेरीवालों का घर कैसे चलेगा । उनके लिए भी तो वही मंहगाई है जो हमारे लिए है । ’’
‘‘ अब इतना सोचने लगे भाई साब तो चल चुकी जिन्दगी । ’’
दरवाजे पर हलचल हुई , मित्र कद्दू का एक बड़ा सा पीस और थैला भर सब्जी लिए प्रवेश  कर रहे थे । बोले - अरे ! तुम आ गए !

Thursday, April 21, 2011

* हम भ्रष्ट जनम जनम के .....



आलेख 
जवाहर चौधरी              

            औरों की तरह मैं भी चाहता हूं कि भ्रष्टाचार  समाप्त हो । भारत एक पवित्र और न्यायपूर्ण व्यवस्था वाला देश  बने । लेकिन क्या ऐसा संभव है ? हमारे यहां जनता के मनोविज्ञान में भ्रष्टाचार के जिवाणु हैं और उन्हें पता ही नहीं है । कहा जाता है कि आदमी को भगवान से डरना चाहिए । कोई देख रहा हो या न देख रहा हो पर भगवान तो देख ही रहा होता है । लेकिन क्या इसका कुछ असर होता है ! हम क्या समझते हैं अपने इस भगवान को ? हर श्रद्धालू अनेक तरह के उपाय कर , पूजा-पाठ कर , भेंट, उपहार, प्रसाद आदि चढ़ा कर अपनी नैतिक-अनैतिक मनोकामना पूरी करने की प्रर्थना या मांग करता है । यहां तक कि डाका डालने या चोरी करने के पहले लोग पूजा करते हैं और सफल होने पर भेंट चढ़ाते हैं । ईश्वर  और इन मंगतों के बीच दलालों की परंपरागत व्यवस्था होती है । जो भ्रष्ट  कामनाओं को सिद्ध करने में सहायता करते हैं । धर्म मनुष्य  के लिए सर्वाधिक महत्व का माना गया है लेकिन धर्म के मर्म को समझने की अपेक्षा हम उसे अपने पक्ष में साधने की युक्ति में लग जाते हैं । 

                                   नौकरी चाहिए, परीक्षा में पास होना है, धन प्राप्ति या विदेश  यात्रा करना है, सबके उपाय हैं । बात बात पर हमारे लोग ‘मानता/मन्नत ’ मान लेते हैं ! कोई चादर चढ़ा रहा है, कोई मुर्गा-बकरा , कोई कथा-भागवत करवा रहा है तो कोई कन्याएं जिमवा रहा है । व्यापार में दिनभर बेईमानी करने वाला रात को प्रसाद चढ़ा कर ईश्वर  को रिश्वत  देता है और संतुष्ट  हो जाता है । रिश्वत  देने के बाद उसे ईश्वर  का डर नहीं लगता बल्कि ईश्वर  को वह अपने चिराग का जिन्न समझने लगता है । कितने अफसोस की बात है कि इस प्रवृत्ति को हम मान्य पूजा पद्दति की तरह स्वीकार करते हैं । आम धारणा है कि   ईश्वर  की जेब गरम कीजिए वो आपकी मदद करेगा ।  जिन दिमागों में कुछ दे कर प्राप्त करने की धारणा जमी हुई है वे भ्रष्टाचार के खिलाफ कैसे लड़ेंगे ?!

                               अपने आचरण , अपनी ईमानदारी पर किसी को भरोसा नहीं है । कोई नहीं मानता कि अच्छा आचरण करूंगा तो ईश्वर  मेरी मदद करेगा । बड़े बड़े सितारे हों , समर्थ-समृद्ध हों या बुद्धिजीवी , सबकी अंगुलियों में चमत्कारी नगीनों की अंगूठी नजर आ जाएगी । क्या ऐसे भाग्यवादियों से भ्रष्टाचार के विरुद्ध कुछ सार्थक करने की उम्मीद की जा सकती है ? जनता मनोवैज्ञानिक रूप से भ्रष्ट है । उसे षड्यंत्र  पूर्वक स्वयं पर अविश्वास  करने का प्रशिक्षण  दिया गया है । लोग चमत्कार की आशा  में अपनी ओर देखना भूल गए हैं । ऐसे लोगों की फौज कितनी ही बड़ी क्यों न हो क्या उससे भ्रष्टाचार मिटाया जा सकेगा ?