Friday, May 31, 2013

बारात का परिस्थितिशास्त्र


      
आलेख 
जवाहर चौधरी 

   जाति समूह में बंटे हम लोग बेहद परंपरावादी और लगभग अहंकारी दिखाई देते रहे हैं। कहने को शिक्षा बढ़ी है, स्त्रीशिक्षा के आंकड़े भी बुलंद हुए हैं, किन्तु जब रूढ़ियों और अर्थहीन परंपराओं की बात आती है तो शिक्षित भी बढ़चढ़ कर हिस्सा लेते दिखाई देते  हैं। पिछले दिनों उ.प्र. और म.प्र. की इन खबरों ने ध्यान आकर्षित किया जब दबंगों ने फरमान जारी किया कि दलितों के विवाह पर बारात घोड़े पर दुल्हे को बैठा कर नहीं निकली जायेगी । उस समय तनाव पैदा हो गया जब बारात निकाली गई । अप्रिय स्थिति को टालने के लिए पुलिस, प्रशासन और नेताओं को भारी प्रयास करने पड़े।
         इधर शहरों में घोड़ियां दबंगों की रिश्ते में कुछ नहीं लगती हैं किन्तु हाल बुरे हैं, और अक्सर लोग बारातों से त्रस्त होते दिखाई देते है। अक्सर लोग मानते हैं कि विवाह में बारात अनिवार्य है, जबकि ऐसा कतई नहीं हैं। हिन्दू विवाह सोलह संस्कारों में से एक महत्वपूर्ण संस्कार है और इसे संपन्न करने के लिए धार्मिक विधि-विधान हैं। सप्तपदी या अग्नि के सात फेरों का ही वास्तविक महत्व है। वर-वधु की विवाह योग्य आयु, उनका स्वस्थ्य और सहमति जरुरी है । उनके अभिभावकों की सहमति कन्यादानकी रस्म में नीहित है । सगे-संबंधी और इष्टमित्रों की उपस्थिति के पीछे भी सहमति-स्वीकृति और सूचना का भाव है। किन्तु विवाह में बारात का प्रावधान एक ऐच्छिक, दंभयुक्त, संवेदनहीन-आनंदमूलक और पारंपरिक आचरण है। दूल्हे को राजा के कार्टून जैसा बना कर गाजे-बाजे के साथ जुलूस के रूप में परदर्शित करना एक तरह से अहं की तुष्टि इसलिए है कि इसमें इस अवसर पर हर तरह की शक्ति के प्रदर्शन  का आग्रह विशेष  होता है। सूट-टाईवान दूल्हे के हाथ में तलवार तो होती ही है, बाराती भी बंदूक दागते चलते हैं। गोयाकि वरण करने नहीं हरण करने जा रहे हों। पिछले कुछ समय से बारात में नाचने को लेकर भी गजब का अनुराग दिखाई देने लगा है। नाचने को लेकर बारात में हत्या की अनेक घटनाएं हुई हैं। बीच सड़क में जब दोनों ओर ट्रेफिक जाम हो रहा है, परेशान लोग गालियां बुदबुदा रहे हैं, हार्न का शोर बैंड के शोर से प्रतिस्पर्धा करता कान फाड़ रहा है, पेट्रोल-डीजल और पटाखों का धुआं नाक में दम कर रहा है और बेखबर भाई लोग प्रेत-नृत्य के साथ मद-मस्त हैं! .... आज मेरे यार की शादी है ..... नजारों में एक तरफ जेवरों से लदी-फंदी खुली तिजोरियांचल रही हैं तो दूसरी ओर लाइट उठाए नंगे पैर, फटेहाल, भूखे बच्चे भी बारात का जरूरी हिस्सा हैं।
         बड़ी मुश्किल से कुछ दूर चले होंगे कि बारात के स्वागत की व्यवस्थाहै, आइस्क्रीम-नाश्ता आदि का अव्यवस्थित वितरण-भक्षण के बाद बारात आगे रेंग जाती हैं। पीछे सड़क पर कप-प्लेट बिछी पड़ी दिखाई देती हैं। मन तब अपराध बोध से भर उठता है जब तमाम भिखारी अधखाए कप-प्लेट उठा कर चाटने लगते हैं। हममें से अनेक इस फूहड़ता को देखते हैं, नाराजगी भी व्यक्त करते हैं किन्तु मौका आने पर इसका हिस्सा भी बनना पड़ता है। सड़क पर चलता वाहन खराबी के कारण जरा देर के लिए बीच सड़क पर रुकता है तो पीछे वाहनों की लंबी कतार लग जाती है, ऐसे में बारात हो और मेरे यार की शादी ....की धमक चल रही हो तो ट्रेफिक में फंसे लोग कितनी दुआ देते होगें समझा जा सकता है।
         किन्तु अच्छी बात ये है कि इस स्थिति को कुछ लोग महसूस कर रहे हैं और बारात की भीड़ का हिस्सा नहीं बन रहे हैं। आज लोगों के पास समय कीमती है और शरीर भी। महानगरों में तो बारात निकालने की मनाही है, बाराती उपलब्ध नहीं होते हैं सो परंपरा भी ढ़ीली हो गई है। फिर भी किसी को शेखी बघारना ही हो तो उसे बाराती किराए पर लेने पड़ते हैं।
         अब अनेक विवेकशील परिवार उक्त दिक्क्तों के चलते बारात नहीं निकाल रहे हैं। उनके इस निर्णय का स्वागत किया जाना चाहिए।
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Thursday, March 28, 2013

कौन है संप्रभु ?


आलेख 
जवाहर चौधरी 

संजय दत्त ने कहा है कि वे देश को प्रेम करते हैं, और सुप्रीम कोर्ट के निर्णय का सम्मान भी. वे जेल जाने और सजा काटने के लिए भी तैयार हैं! शायद देश को उनकी इस कृपा के लिए आभारी होना चाहिए. वे समाज के उस वर्ग का प्रतिनिधित्व करते हैं जहां सत्ता और सम्रद्धि से लोगों में इस तरह की अदा विकसित हो जाती है. वो अपने को न केवल अन्य लोगों से ऊपर मानते हैं बल्कि कानून और व्यवस्था को भी जेब में पड़ा पर्स मान लेने की गलतफहमी पल लेते हैं. बोलचाल कि भाषा में जिन्हें बिगडैल बच्चे कहा जाता है वैसा ही यहाँ भी दिखाई देता है. माता-पिता या बहन को हटा कर देखें तो संजय में अभिनेता होने के आलावा ऐसा कुछ नहीं है जिससे उन पर दया का औचित्य सिद्ध होता हो. बुरी संगत से बुरे पथ का निर्माण होता है. यह पूरी तरह चुनाव का विषय है. ऐसा नहीं होगा कि माता-पिता ने उन्हें कुपथ पर जाने से रोकने का प्रयास नहीं किया होगा. किन्तु संजय ने उनके मान-सम्मान, पद, प्रतिष्ठा सबको अनदेखा किया. न उन्हें अपना ख्याल रहा और न ही समाज का. वे जो करते रहे हैं, वैसा दूसरा कोई करे तो उसे दुनिया वाले लायक पुत्र कहेंगे इसमें संदेह है. उन्होंने कहा है कि वे माफ़ी नहीं मांगेगे! सच ही कहा, उन्होंने अपने किये की माफ़ी शायद कभी भी नहीं मांगी होगी. माँ-बाप को सारी नहीं कहा होगा. कहा भी होगा तो दिल से नहीं. माफ़ी मांगना उनकी आदत में नहीं है.
लेकिन एक बात यहाँ समाज के लिए भी सोचने की भी है. संजय अपराधियों के संपर्क में आये, उनके हाथों का खिलौना बने तो क्यों !? अपराधी समाज में सक्रीय रहते आये हैं तो दोषी कौन है? सरकार कहाँ गई? और राज किसका है? कौन है संप्रभु?  गुंडे हप्ता वसूलते है, फिरौतियां लेते है, हत्याएं करते हैं, उद्योगपतियों, अभिनेताओ आदि से बड़ी रकमें मांगते हैं, और दबाव में लोगो को देना पडती है. ऐसे में असफल कौन होता रहा है? यह कानून और सरकार की नाकामयाबी है कि उसके रहते जंगल-राज पनप गया!! आज लोग गवाही देने से कतराते हैं क्योकि वे जानते हैं कि व्यवस्था इतनी ढीली है कि गवाही देने के बाद वे सुरक्षित नहीं रह पाएंगे. संजय का व्यक्तित्व ऐसा नहीं है कि वे किसी की कठपुतली बनते. लेकिन व्यवस्था से पनपी असुरक्षा ने उन्हें अपराधियों के हाथ खिलौना बनाया. सरकार का प्राथमिक कार्य है कि वो अपने नागरिकों को असामाजिक तत्वों से सुरक्षा प्रदान करे. अगर लोगों में धारणा है कि अपराधी पुलिस से मिले हैं और क़ानूनी सुराखों से वे प्रायः बाइज्जत बरी होते रहते हैं तो आसली दोषी कौन है? माफ़ी किसे मंगनी चाहिए? और किसे माफ़ किया जाना चाहिए?


Thursday, October 11, 2012

* कमजोर दंड व्यवस्था !




आलेख 
जवाहर चौधरी 



मृत्युदंड को लेकर प्रायः बहसें होती रहती हैं और इस विचार को स्थापित करने के लिए तमाम तर्क दिये जाते  हैं कि मृत्युदंड का प्रावधान सही नहीं है । यहां लगता है कुछ तथ्यों की अनदेखी की जाती है । सामाजिक-राजनैतिक व्यवस्था की सर्वोच्च प्राथमिकता यह होती है कि समाज में नियंत्रण बना रहे । कोई व्यक्ति, चाहे वह देश  का हो या दूसरे देश  से आया हो, यदि समाज व्यवस्था अथवा नियंत्रण को क्षति पहुंचाता है तो उसे दंडित किया जाना आवश्यक  है, क्योंकि - 1. यह नियमों का उलंघन है, गैरकानूनी कृत्य है । 2. चूंकि नियम उलंघन के साथ दंड का प्रावधान है  । 3. भविष्य में व्यवस्था और नियंत्रण को प्रभावी रखने के लिए जरूरी है । 4. राज्य की विश्वसनियता, संप्रभुता और न्याय के लिए दंड का निष्पक्ष रूप से प्रयोग किया जाना आवश्यक  है । 
जिस तरह राज्य अपने नागरिकों से कुछ आचरणों की अपेक्षा करता है उसी तरह नागरिक भी राज्य के     व्यवहार और दृष्टिकोण का आकलन और अपेक्षा करते हैं । जब जब भी राज्य कमजोर होने लगता है तब तब व्यक्ति अनियंत्रित होता है । दंड की व्यवस्था खुद राज्य के अस्तित्व के लिए आवश्यक  है । मृत्युदंड मामूली बातों पर नहीं दिया जाता है और न ही यह सड़क किनारे की दंड व्यवस्था है । बहुत विचारपूर्वक और अब तो लगभग संपूर्ण शोध  के बाद मृत्युदंड की पुष्टि होती है । नागरिक यदि यह पाते हैं कि वे जिस व्यवस्था में रह रहे हैं उसमें जघन्य अपराधियों के प्रति उदार या ‘मानवाधिकारवादी’ रुख अपनाया जा रहा है तो वे उस व्यवस्था के प्रति स्वाभाविक रूप से उपेक्षा का भाव रखेंगे । अक्सर अपराधी कहते पाए जाते हैं कि पहली हत्या की सजा फांसी है लेकिन दूसरी-तीसरी हत्या के लिए वही एक फांसी है । तो फिर इसमें अब सोचने या डरने की जरूरत ही क्या है ! पहली हत्या के लिए उसे डर लगा होगा, उसने सोचा भी होगा, लेकिन दूसरी-तीसरी हत्या के मामले में उसे डर नहीं है । मृत्युदंड का प्रावधान यदि नहीं हुआ तो पहली हत्या के समय ही उसे यह डर नहीं रहेगा । राज्य का डर खत्म होते ही समाज अराजकता की राह पर तेजी से बढ़ने लगेगा । 
कई बार यह कहा जाता है कि राज्य जीवन दे नहीं सकता तो उसे जीवन लेने का अधिकार भी नहीं है ! किन्तु ऐसा सोचना राज्य के साथ अन्याय है । राज्य अपने नागरिकों की रक्षा करते हुए उन्हें जीवन ही प्रदान  करता है । आज तो राज्य के कार्य असीम हो गए हैं । रोजगार, शिक्षा , स्वास्थ्य, बीमा, पेंशन , सहायता, सुरक्षा, विकास आदि सब का संबंध जीवन रक्षा से ही तो है । यदि सीमारक्षा के लिए शत्रु  का नाश  उचित है तो आंतरिक व्यवस्था की रक्षा के लिए नियमानुसार सभी प्रकार के दंड उचित हैं । भारत जैसे देश  में जहां जनसंख्या 120 करोड़ से अधिक है और जो धर्म, भाषा, जाति, प्रदेश  और अन्य छोटी-बड़ी भिन्नताओं से युक्त है, व्यवस्था और नियंत्रण का प्रश्न  और भी जटिल है । अमेरिका, ब्रिटेन या किसी और देश  के उदाहरणों से हम अपनी व्यवस्था को परिभाषित करना चाहेंगे तो यह बड़ी चूक होगी । देश  आज संसद पर हमला करने वालों और मुम्बई हमले के अपराधियों को सजा नहीं दे पा रहा है तो नागरिक मान रहे हैं कि केन्द्र सरकार कमजोर है । यही कारण है कि बार बार खबर छपती है कि आतंकी नए हमले का प्रयास कर रहे हैं । कमजोर दंड व्यवस्था अपराधियों के हौसले बढ़ाती है । 
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Tuesday, July 17, 2012

* दिल है कि मानता नहीं .

                    

आलेख 
जवाहर चौधरी 

  विश्वबिहारी जी के यहाँ बेटी की सगाई का प्रसंग आया . जरुरी था कि पास -पडौस और नातेदारों को इस अवसर पर आमंत्रित  किया जाये और भोजन व्यवस्था भी हो . वे खुद अनेक जगह आमंत्रित होते रहे हैं किन्तु भोजन कहीं नहीं करते हैं . होटल का खाना भी वे नहीं खाते हैं . वजह साफ सफाई को लेकर है . आयोजनों में बनाने वाले पसीने में गंधाते कर्मचारी , उनके वस्त्र ,  बर्तन  वगैरह सब चिकट और अस्वच्छ होते हैं . सामग्री को लेकर भी आश्वस्त नहीं हुआ जा सकता है .घर में पत्नी सब्जी को ठीक से धो कर , नमक के पानी में आधा -एक घंटा रखती है तब बनाने के लिए काटती है . यहाँ केटरर पोटली से सब्जी सीधे बिना देखे  भाले काट  कर  छौंक देता है . न घी तेल की कोई गारंटी , न आटे - मैदे की . जहाँ रसोई बनती है वहां कचरा और गीलापन होता है . मक्खियों की भरमार इतनी कि पता नहीं चलता कि खाद्य सामग्री है या मक्खियों का छत्ता . इन्हीं कारणों से विश्व बिहारी नहीं खाते हैं .

                   आज उनके पास अवसर है, वे जिस तरह की व्यवस्था को नापसंद करते हैं , उसे सुधार सकते हैं । लेकिन छोटा परिवार , कोई भगदौड़ करने वाला नहीं है । नातेदारों में कुछ हैं , किन्तु सब व्यस्त हैं । न-न करते भी तीन सौ मेहमान हो रहे हैं । घर में व्यवस्था हो नहीं सकती और होटल बजट को अंगूठा दिखा रही है । पांच दिनों की उहापोह के बाद आखिर एक केटरर को विथ -मटेरियल तय किया । रेट उसने बताया था चार सौ रुपए प्रति प्लेट । लेकन बोला कि सौ रुपए प्रति प्लेट में भी कर सकता है । तमाम तरह की हिदायतों के बाद सौदा एक सौ पचहत्तर रुपए प्रति प्लेट पर ठहरा । घर के सामने की सड़क पर शामियाना तान कर व्यवस्था हुई, जिसके एक कोने में आड़ करके भोजन बनाने की जगह निकाली गई । विश्व  बिहारी वह सब  देख रहे थे जो देखना पसंद नहीं करते हैं ।
मेहमान आए , सबने निर्विकार भाव से आनंद लिया, जैसा कि हर जगह होता है । दो घंटे में सारे कार्यक्रम निबट गए ।
सब के जाने के बाद विश्व  बिहारी अंदर अपने किचन में  आम के अचार के साथ सुबह की रोटियां खा रहे थे ।

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Sunday, June 24, 2012

संभावनाओं के हरे पत्तों के लिए




आलेख 
जवाहर चौधरी                  

  तमाम लोगों की तरह खुद मुझे भी लगता रहा है कि हम जिस समय में रह रहे हैं उसमें लोग आत्मकेन्द्रित और बहुत हद तक स्वार्थ केन्द्रित हैं । शहर में पडौसी एक ‘बैड कंडक्टर’ की तरह साथ में बना रहता है । किसी को किसी से मतलब ही नहीं ! एक बिल्डिंग में अगर नीचे के फ्लोर पर किसी की मौत हो जाए तो उपर वाले की दुनिया अक्सर बेअसर रहती है । कितने बूढ़े हैं जो वृद्धाश्रम में इसलिए पड़े हैं कि अपने उन्हें देखना तक पसंद नहीं करते हैं । सड़क हादसों में लोग घायल पड़े रहते हैं और तमाशबीनों में कोई अस्पताल ले जाने वाला नहीं मिलता । गुण्डे घर के बाहर दबंगई करें और मदद के लिए पुकारे जाने पर भी कोई बाहर नहीं निकलता !! कर्ज में डूबा भाई सपरिवार आत्महत्या कर लेता है, सिर्फ इसलिए कि उसके सामने कहीं कोई संभावना शेष नहीं रह गई है । कितने ही बच्चे हैं जिन्हें मां-बाप के जाने के बाद सरपरस्ती नसीब नहीं हुई है । आज हर घर में एक या दो बच्चे होते हैं , जो नसीब के और मनौतियों के होते हैं । जिन पर आगे कुछ बन कर दिखाने की जिम्मेदारी है । मैं सोचता हूं कि वक्त जरूरत अगर किसी को पुकारूंगा तो शायद ही कोई आए । दिल्ली में तीन पढ़ी-लिखी अकेली लड़कियां अपने घर में असहाय अवस्था में पिछले दिनों भूखी मर गईं किन्तु जीतेजी उन्हें किसी से कोई सहायता नहीं मिली । कितने लोग इस समय असाध्य बीमारियों से पीड़ित हैं लेकिन जानते हैं कि कहीं कोई संभावना नहीं है । हम लोगों ने ज्यादातर मामलों में अपने को नियति के हवाले कर दिया है । इस वक्त भाग्य के भरोसे जितने लोग हैं, उतने पहले कभी नहीं रहे होंगे । कर्म संभावना पर काम कारता है । जहां संभावना नहीं वहां शून्य  होता है ।
                              लेकिन कभी कभी ऐसा कुछ घटता है कि समाज आत्मविश्वास  और संभावनाओं के नए विश्वास  से भर उठता है । बहुत पहले प्रिंस नाम का एक बच्चा बोरवेल में गिर गया था और बड़े प्रयासों से उसे बचा लिया गया था । इसके बाद ऐसी अनेक घटनाएं प्रकाश  में आईं और बच्चों को बचाया गया । हाल ही में माही नाम की लड़की बोरवेल में गिरी और 84 घंटों के अथक परिश्रम के बाद उसे निकाला जा सका । अफसोस की उसकी जान फिर भी नहीं बच सकी ।  उससे बड़ा दुःख इस बात का है कि माही के संबंधी प्रशासन पर लापरवाही का आरोप लगा रहे है। यह असहिष्णुता है । बचाव में लगे सारे लोग सद्भाव और स्वप्रेरणा से लगे रहे अतः उनका आभार माना जाना चाहिए । सबसे बड़ी बात यह है कि इनके प्रयासों से समाज एक महत्वपूर्ण 'संभावना' की रक्षा करने में सफल रहा । जिस  समाज में सड़क पर पड़े घायल को अस्पताल ले जाने वालों का टोटा हो वहां बोरवेल में 84 घंटे संघर्ष करने का समाचार आशा  पैदा करता है । जिस समाज और व्यवस्था को हर कोई नकारात्मक दृष्टि से देखता है वहां ऐसी घटनाएं और प्रयास एक बहुत जरूरी संभावना को पुनः स्थापित करते हैं । यह  हमारे सामाजिक  जीवन के लिए एक बहुमूल्य आश्वासन  है कि आप जिस समाज में रह रहे हैं वहां एक छोटी जान की कीमत भी समझी जा रही है ।  माही एक आम आदमी की बच्ची है, उसे बचाने में जुटे लोगों का काम मानवीय और नैतिक है । इन जैसे  प्रयासों  से निराशा  की तपन से सूखते पेड़ों में नए, हरे पत्ते निकलेंगे ।

Saturday, June 2, 2012

एक छोटा सा स्क्रेच और सब खत्म !


आलेख 
जवाहर चौधरी 

इनदिनों आत्महत्या की घटनाओं में एक उछाल सा आया है । स्वयं को समाप्त कर देने वालों में युवाओं की संख्या चौकाने वाली है । पिछले एक माह में हुई आत्महत्याओं में केन्सर जैसी बीमारी से पीड़ित युवाओं के अलावा परीक्षा में असफल, कर्ज से परेशां , प्रेम में विफल, पारिवारिक तनाव जैसे कारण ज्यादा सामने आए हैं । यह चिंता का विषय है कि नौजवानों में जीवन के प्रति उतना आकर्षण नहीं है जितना पैकेज के लिए है । जबकि ये समय उत्साह, उमंग, आशा से भरा होना चाहिए । सोचता हूं कि एक युवा आत्महत्या के वक्त किस मानसिक स्थिति में होता है ! निसंदेह निराशा के चरम पर । किन्तु इस स्थिति का कारण क्या है ? गरीबी, पारिवारिक तनाव और तमाम तरह की असफलताएं हर काल में रहीं हैं , लेकिन आत्महत्याएं अब अधिक क्यों ? कहीं ऐसा तो हमने जीवन में हर चीज, हर वस्तु या रिश्ते की उपयोगिता एवं महत्व को समझने में चूक कर दी है । हर चीज को ‘यूज एण्ड थ्रो’ की तरह देखे जाने की आदत हमारी सोच में पसर गई है । मैंने बचपन में देखा है कि प्रायः हर घर में स्त्रियां फटी-पुरानी साड़ियों को तहा कर गोदड़ी बना लेतीं थीं जो बीस बीस साल तक काम आती थीं । पुरुषों के पुराने पतलून से बैग और थैलियां बना ली जातीं थी । हम अपनी पिछली कक्षा की कापियां के खाली पन्ने निकाल कर जिल्द से नई कापियां बनाते थे । कोई भी चीज इतनी बेकार नहीं होती थी कि उसे नई शक्ल नहीं दी जा सके । पशुओं के गोबर से उपले बनाए जाते थे, भोजन पकाने के बाद उसकी राख को हाथ धोने, बर्तन साफ करने और खेत में कीट नाशक के रूप में काम में लिया जाता था । हर कोई जानता था कि हर चीज हर हाल में कुछ उपयोगिता रखती है । समाज व्यवस्था ऐसी थी कि खुद आदमी हर अवस्था में उपयोगी था . तो फिर आज जीवन इतना निरुपयोगी क्यों !? यह देख कर आश्चर्य होता है कि शापिंग आज एक शौक है ! टाइमपास या तनाव कम करने का एक साधन ! कोई सामान इसलिए खरीदा जा रहा है कि खरीदने की खप्त है ! इसलिए नहीं कि उसकी जरूरत है या उसमें हमारी कोई आवश्यकता की पूर्ति हो रही है । खरीद कर लाए और पटक दिया । एक दिन सफाई के दौरान घर से बाहर । कपड़े , गाड़ियां इसलिए बेकार हुए कि फैशन बदल गया । मन नहीं है , या भर गया है तो जूते, चश्मा , ‘रिलेशन ’ को ठोकर मार दी । एक छोटा सा ‘स्क्रेच’ किसी भी चीज को मूल्यहीन कर देता है ! जब हम बहुत सी चीजों को इसी नजरिए से देखने लगते हैं तो जीवन के लिए दृष्टि कहां से लाएंगे ? हमारे समय में बच्चे जानते थे कि चौरासी लाख योनियों के बाद मनुष्य जीवन नसीब हुआ है सो बहुत कीमती है । जीवन कर्म करने के लिए है, फल के बारे में चिंतित होने के लिए नहीं । यदि कहीं कोई दुःख या अभाव है तो वह भाग्य है , कर्मफल या ईश्वर द्वारा ली जा रही परीक्षा है । आत्महत्या घोर पाप है । लेकिन आज इस तरह के विश्वास कहीं खो गए हैं । रिश्ते -नाते सिर्फ औपचारिकता हैं या फिर विवशता । तकलीफ में पड़ा व्यक्ति अपने भाई से दूर और अकेला क्यों है ? ! रिश्ते रेडियो सिलोन की तरह हैं , जिसके सिगनल बार बार गायब हो जाते हैं ! नौजवानों तुम्हारे पीछे एक परिवार है जिसने दशकों तक सिर्फ तुम्हारा सपना देखा है । तुम्हारे जाने के बाद मां-बाप की सांसे चलतीं हैं लेकिन क्या वे जिंदा भी रहते हैं ? तुम्हारा जीवन सिर्फ तुम्हारा नहीं है बच्चों ।

Friday, March 9, 2012

* क्या प्रतिभाओं को भी पचा नहीं पाएगा समाज !?


               
आलेख 
जवाहर चौधरी 

    यह दुर्भाग्य है कि आज भी देश  के कुछ राज्य जातीय वैमनस्य के कीच में लोटते दिखाई दे रहे हैं । उंच-नीच की भावना को जिन्दा रखने वाली कुरीतियां अभी भी जारी हैं । आजादी और लोकतंत्र को साठ साल से अधिक हो गया है । संवैधानिक प्रावधानों के चलते पीड़ित जातियां इस नरक से बाहर आने का निरंतर प्रयास भी कर रही हैं ।  निम्न जातियों को आगे बढ़ते देखने की आदत नहीं होने के कारण अपराधिक स्तर के बल प्रयोग से उन्हें रोकने की दुःखद घटनाएं सामने आ रहीं हैं । हाल ही में पांच राज्यों के चुनावी शोर  में दिल्ली के जनसत्ता में छपी, फरवरी अंत की एक बहुत बड़ी घटना अनसुनी रह गई है ।
                 हरियाणा पिछड़ी मानसिकता का एक रूढ़ राज्य है । यहां छोटी कही जाने वाली बढ़ई जाति के प्रतिभाशाली छात्र प्रदीप को उच्च कही जाने वाली जाट जाति के छात्रों द्वारा इसलिए गोलियों से भून डाला गया कि वह परीक्षा में लगातार अच्छे अंक ला रहा था और मेरिट में उसका दूसरा स्थान बना । चैबीस वर्षीय प्रदीप हिसार के एक इंजीनियरिंग कालेज में चौथे  सेमेस्टर का विद्यार्थी था । प्रदीप के पिता रामलाल ने बताया कि प्रदीप को हमेशा  जाति सूचक शब्दों से ताने मारे जाते थे । अपमान का यह सिलसिला लंबे समय से चल रहा था । पिछले साल दिसंबर में प्रदीप के पिता रामलाल ने इस मुद्दे पर निवेदन किया और जाट लड़कों ने आगे ऐसा कुछ न करने का वादा उन्हें किया था । लेकिन फरवरी अंत में तीसरे सेमेस्टर का परिणाम आया और प्रदीप को 79 प्रतिशत  अंक के साथ दूसरा स्थान  प्राप्त हुआ, जबकि  कल्याण और राजकुमार नाम के उक्त जाट छात्र छः में से पांच पेपर में फेल हो गए । इन्हें प्रदीप की सफलाता  इतनी खली कि उन्होंने उसकी हत्या की योजना बना ली और प्रदीप को मार डालने की धमकी दी ।
                    धमकी से डरा प्रदीप घटना वाले दिन कालेज नहीं जाना चाहता था । लेकिन पिता ने उसे हिम्मत बंधाई और जाट लड़कों को समझाने के लिए खुद भी  उसके साथ गए । बस में पिता-पुत्र ने साथ में सफर किया । हिसार से पंद्रह किलोमीटर दूर कल्पना चावला इंस्टीट्यूट आफ  इंजीनियरिंग एण्ड टेक्नोलोजी  पर पहुँच  कर प्रदीप पहले उतरा, पिता उसके पीछे ही थे । अचानक मोटर सायकल पर उसके जाट सहपाठी आए और प्रदीप पर पिस्तौल से सात गोलियां बरसा कर भाग गए ।
              हिसार पुलिस ने दोनों अभियुक्तों को गिरफ्तार कर लिया है और हत्या में उपयोग की गई पिस्तौल और मोटरसायकल भी जप्त कर ली है । उनसे पता चला है कि प्रदीप की अच्छी पढ़ाई के चलते उसे मार डालने की योजना उन्होंने तीन माह पहले ही बना ली थी ।
                डेढ़-दो वर्ष पहले चक्रसेन नाम के एक दलित छात्र को उच्च जाति वालों ने क्रूरता पूर्वक इसलिए मार डाला था क्योंकि उसका दाखिला इंजीनियरिंग कोर्स बी-टेक के लिए हो गया था । राष्ट्रिय अखबारों की सुर्खी बने इस समाचार के बाद केस क्या हुआ कुछ पता नहीं चला । सवाल यह है कि हमारा समाज किस आत्मघाती दिशा की ओर बढ़ रहा है !? अतीत में भी निम्न जातियों के साथ दुर्व्यवहार  के कारण धर्मांतरण के दंश  हम झेल चुके हैं । यह कहा जाने लगा है कि हिन्दू समाज मात्र सवर्णो का समूह है । यदि प्रतिभाओं को भी समाज नहीं पचा पाएगा तो वह दिन दूर नहीं जब कुछ भस्मासुरों के कारण अप्रिय स्थितियां देखना पड़े ।

Wednesday, February 8, 2012

परंपराओं की बिल्ली


            
आलेख 
जवाहर चौधरी 


    पुराने समय में एक पंड़ितजी जब पूजा करने बैठते तो उनकी पालतू बिल्ली उनके आपपास बनी रहती, कभी गोद में बैठ जाती, कभी पूजा सामग्री की ओर लपकती । पंड़ितजी पूजा पर बैठते और पहले एक टोकरी से बिल्ली को ढंक देते । बिल्ली बंद रहती और उनकी पूजा निर्बाध संपन्न हो जाती । अचानक उनका देहांत हो गया । कुछ दिनों के बाद पूजा पुनः आरंभ करना थी । पुत्र ने बड़े परिश्रम से बिल्ली को पकड़ा , टोकरी में बंद किया और पूजा की । हर दिन पूजा से ज्यादा समय उसे बिल्ली को पकड़ने में लगाना पड़ता था क्योंकि बिल्ली उसे देखते ही दूर भागती थी । 
                कोई कार्य रूढ़ हो कर कब हमारी चेतना में  जगह बना लेता है , अक्सर हम जान नहीं पाते । विवेक और विज्ञान को अपनी शक्ति  का ज्यादातर भाग पिछले कामों को देखने-समझने और जांचने में खर्च करना पड़ता है । भारत में एक सामान्य परंपरा है कि जब किसी की मृत्यु होती है तो दरवाजे पर कंडे या उपले को जला कर रख दिया जाता है । शवयात्रा के साथ आगे आगे उस जलते उपले को ले कर चला जाता है । उस उपले से बड़े प्रयासों के बाद चिता की अग्नि प्रज्वलित की जाती है । नगरों / महानगरों में भी यही किया जाता है । इसके कारणों के विषय में कहीं कोई जिज्ञासा या प्रश्न  नहीं होता है ।
                  पुराने समय में ‘आग’ माचिस में सुलभ नहीं थी । बड़े परिश्रम और जतन से उसे ‘पैदा’ किया जाता था । रसोई बनाने के बाद चूल्हे में अंगारों को दबा कर रखा जाता था ताकि जरूरत पड़ने पर दोबारा उसी से ‘आग’ पैदा की जा सके । इस तरह चूल्हा हमेशा  आग समेटे गरम रहता था । घर में किसी की मृत्यु होते ही परिजन चूल्हे से आग निकाल कर उपले के साथ दरवाजे पर रख देते थे । चूल्हा ठंडा हो जाता था । ‘चूल्हा ठंडा होना’  शोक सूचक शब्दों  की तरह प्रयुक्त होते थे । शोक  प्रायः तीन दिन, तेरह दिन और कहीं कहीं सवा महीना या चालीस दिनों का होता है । तीन दिनों तक घर का चूल्हा नहीं जलता था । पास पड़ौस या संबंधीजनों के यहां से उपलब्ध कराए भोजन का उपयोग होता है । बाद में बहन-बेटियां और रिश्तेदार  घर का चूल्हा जलवाते थे । ‘चूल्हा जलवाना’ शोक  निवारण की महत्वपूर्ण प्रक्रिया माना जाता था । अब चूल्हे में पहले की तरह ‘आग’ है , वह गरम है अर्थात् जीवन की सामान्य गतिविधियां पुनःस्थापित हो गईं ऐसा माना जाता था । 
                 आज के समय को देखें तो अग्नि को प्रज्वलित करने में कोई कठिनाई नहीं है । न ही घरों में परंपरागत चूल्हे दिखाई देते हैं , कम से कम नगरों में तो नहीं । गांवों में हैं भी तो उन्हें गरम रखने की आवश्यकता  अब समाप्त हो चुकी है । लोग कुकिंग गैस या बिजली से भोजन पकाते हैं । शिक्षा , समझ और आधुनिकता के मामले में नगरीय समाज तीव्र गतिशीलता  रखता है । लेकिन नगरों में, जहां उपले सहज नहीं मिलते हैं, शोक  के समय इन्हें ढूंढ़ कर जुटाया जाता है । उसे घासलेट या पेट्रोल  डाल कर माचिस से जलाया जाता है और दरवाजे पर रखा जाता है । बिना यह सोचे कि आज इस उपक्रम का कारण और जरूरत क्या है !! 
                     आज की पीढ़ी में जिज्ञासा और चेतना अधिक है । अगर परंपराएं थोथी हैं या अप्रासंगिक हो गईं हैं तो बिना सोचे उसे ढ़ोते जाना हमारे अविवेकी  होने को प्रमाणित करता है । यदि हम नई पीढ़ी के सामने अपने को इसी तरह प्रस्तुत और प्रमाणित करेंगे तो उनसे सम्मान की आशा  करना उचित नहीं है । हमारी अगली पीढ़ी बिल्ली पकड़ने के लिए नहीं होना चाहिए । 

Wednesday, November 23, 2011

* मैं पेड़ होना चाहता हूं .


           

आलेख 
जवाहर चौधरी 

 मुझे नहीं मालूम कि पेड़-पौधों का कोई परिवार होता है , जैसा कि हमारा होता है । यों देखा जाए तो शायद  होता होगा । बीज कैसे आते हैं ! अगर हम अपने जैसा हिसाब उन पर लगाएं तो लगता है पेड़ों के माता-पिता होते हैं, भाई-बहन होते हैं और पुत्र-पुत्री भी । पेड़ों की जाति होती है, उनका समाज भी होता होगा । जब इतना सब है तो उनमें संवाद होता होगा, उनकी कोई भाषा भी होगी, भावनाएं होंगी, उनके सपने भी होते होंगे, किसको पता ! लोग कहते हैं कि वे पेड़ों से बातें किया करते हैं । वे हमारे सुख-दुःख के साथी भी मानें जाते हैं । कई बार पेड़ों से नातेदारी होती है और निबाही भी जाती है । पेड़ों से शादियां करने की खबर आज भी सुनने में आती है । पेड़ कहीं पुरखों की भूमिका में होते हैं कहीं उनसे भी बड़े । उनकी पूजा की जाती है, आशीर्वाद  लिए जाते हैं, उनसे कुछ मांगा भी जाता है । मनुष्य के साथ पेड़ों का नाता जन्म के साथ झूले / पलने से आरंभ होता है और चिता तक बना रहता है । कबीर ने ‘देख तमाशा  लकड़ी का’ गा कर पेड़ों की महिमा का बखान किया ही है ।
                    मैं अपने सामने, आंगन में लगे एक पेड़ को बहुत देर से देख रहा हूं । मैंने ही लगाया था कहीं से ला कर , शायद खरीद कर । यह शुरू  से अकेला है , पता नहीं इसका कौन है ! न जाने इसके जन्मदाता कहां हैं, ... और बच्चे भी ! मौसम आते हैं और हर बार यह यांत्रिकता से हरियाता है , फूलता है, फलता है । फिर अकेला हो जाता है । मैं पूछना चाहता हूं इससे, कहां है तेरे पिता , कहां है पुत्र ? और एक निरर्थक कहानी सी धुंधियाने लगती है हवा में, जिसके आरंभिक और अंत के पृष्ठ कोई फाड़ ले गया है । उत्तर में वह पेड़ धरती और आकाश  को नाप देता है । हवा, प्रकाश  सबके नाम बता देता है। विश्वास -अविश्वास  के असंख्य पत्ते झरने लगते हैं । आज लिखते समय भी लग रहा है कि मैं अपने को बहला ही रहा हूं । बहलाने वाला ‘मैं’ और न बहलने वाला ‘मैं’, दो अलग इकाइयां खड़ी हो रही हैं । इन दोनों को महसूस करता एक तीसरा ‘मैं’ भी मौजूद है, लग रहा है खण्ड-खण्ड हो रहा हूं । हंसते, गाते, रोते, रीझते, खीझते मैं ही मैं हूं । ‘मैं’ की एक भीड़ होती जा रही है ... भीतर । अकेला पेड़ सामने हैं लेकिन एक जंगल पसर गया है अंतस में । अपने ही जंगल में भटकता, भ्रमित होता अक्सर बेचैन महसूस करता हूं । अकेले में अपने से ही डरता हूं और ऐसी जगह भाग जाना चाहता हूं जहां मेरा ‘मैं’ न हो । न मेरी धड़कनें, न सांसें, न स्मृतियां, न दुःख । जैसे सन्यासी त्याग कर चले जाते हैं संसार को कंदराओं में , न लौटने के निश्चय  के साथ। किसी सूनी घाटी में जैसे एक पेड़ खड़ा हो जीवित, निर्जीव सा ।
                  मैं पेड़ होना चाहता हूं , ताकि जब लौटूं इस संसार से स्मृतियां साथ न हों , न शिकायतें  किसी से, और न हिसाब लिए-दिए का । क्योंकि शायद  पेड़ों की स्मृतियों में कोई नहीं होता । वे बिना यादों के आते हैं और सब भूल कर जाते हैं ।

Wednesday, October 19, 2011

एक लापरवाह कौम की भाषा चेतना !


                             

आलेख 
जवाहर चौधरी 

केन्द्र सरकार की चिंता यदि यह है कि राष्ट्र्भाषा हिन्दी को क्लिष्ट और लगभग अव्यवहारिक अनुवादों से बाहर निकाल कर सरल व सुबोध बनाया जाए, तो हाल ही में राजभाषा विभाग द्वारा प्रशासनिक  विभागों को जारी किए गए उसके परिपत्र का स्वागत किया जाना चाहिए । कोई भी भाषा जनस्वीकृति और लोकव्यवहार से विकसित और समृद्ध होती है । किसी जमाने में संस्कृतियां स्थानीय होती थीं । भारत में तो कहा ही जाता था कि ‘चार कोस में बदले पानी और आठ कोस में बानी’ । यातायात और संचार साधनों के विकास से संस्कृतिक आदान-प्रदान सुगम होता है, और शब्दों  का लेन-देन निर्बाध । जिन देशों  में विदेशी  ताकतों का शासन  रहा हो वहां सत्ता पक्ष का की भाषा के शब्द  तेजी से फैल कर स्थानीय भाषाओं में और लोकव्यवहार में अपनी जगह बना लेते हैं । यह स्वाभाविक प्रक्रिया है । यही कारण है कि हिन्दी में अरबी, फारसी, उर्दू और अंग्रेजी के शब्द स्वीकृत हैं । शासकीय  कामकाज के स्तर पर अनुवादक जिस हिन्दी का प्रयोग करते हैं वो प्रायः जटिल और हास्यास्पद हो जाती है । हिन्दी सरल इसलिए भी है कि इसमें भारत की अनेक भाषाओं, बोलियों के शब्द सम्मिलित हैं । इसलिए मराठी, पंजाबी, बंगला , उर्दू तमिल, तेलुगू आदि बोलने वालों को भी बिना किसी अतिरिक्त प्रयास के हिन्दी में  अपनेपन के अंश  मिल जाते हैं । भाषा का यही गुण उसे समृद्ध और दीर्घजीवी बनाता है । 
                        कुछ शुद्धतावादी भाषा-चिंताकारों को लगता है कि अंग्रेजी के शब्द को शामिल  करने की सरकारी इजाजत से भाषा मर जाएगी या हिन्दी कुछ दिनों में हिंग्लिश हो जाएगी । वे मानते हैं कि किसी यह अन्तराष्ट्रीय षड़यंत्र के तहत हो रहा है । माना कि ऐसा हो रहा है तो क्या हम किसी समुदाय को उसके भाषा प्रचार या विकास से रोक लेंगे ? किसी भाषा के विस्तार में कई चीजें काम करती हैं, जिसमें भाषा का अपना आभामंडल बहुत प्रभावी होता है । सरकार ने कहीं आदेश नहीं निकाला है कि हम अपने बच्चों को अंग्रेजी माध्यम में पढ़ाएं । बल्कि विशेषज्ञों  की राय तो यही है कि प्रथमिक शिक्षा  मातृभाषा में दी जाना चाहिए । लेकिन हो क्या रहा है ? हिन्दी स्कूल सरकारी हैं और लगभग खाली पड़े हैं । निजी स्कूलों में अंग्रेजी माध्यम है और जगह नहीं है । हमारे अंग्रेजी आतंक के कारण गली गली में अंग्रेजी माध्यम की दुकानें चल रही हैं ! पिछले छः दशकों से लगातार अंग्रेजी के शब्द लोकव्यवहार में आ रहे हैं । यह एक कड़वा सच है कि देश अपनी अगली पीढ़ी इंग्लिश मीडियम स्कूलों में गढ़ रहा है । खुद भाषा के चिंताकारों में आत्मविश्वास  नहीं है कि इनमें से अधिकांश अपने बच्चे अंग्रेजी स्कूलों में पढ़वा रहे हैं । माना कि शिक्षा  और करियर की विवशता के चलते उन्हें ऐसा करना पड़ रहा है लेकिन दैनिक व्यवहार में अंग्रेजी के आग्रह की प्रवृत्ति किस मंशा  से पाले हुए हैं वे !? इंग्लिश मीडियम स्कूल के एक अध्यापक  ने बताया कि स्कूल परिसर में हिन्दी बोलने पर प्रतिबंध और दंड के प्रावधान से डर था कि पालक इसका विरोध करेंगे । किन्तु आश्चर्य  कि इसी वजह से उनका स्कूल प्राथमिकता में आ गया ! जब कोई कौम अपनी भाषा को लकर खुद सचेत नहीं है और उसमें पल रहे भाषा-चिंताकार भी नकली हों तो अन्य चीजों की भांति भाषा भी भगवान भरोसे ही रहेगी । भाषा के जरिए विशेष  हो जाने की मंशा  को अधिक दिनों तक छुपाना संभव नहीं दिखता है । 
                                     केवल स्कूलों की बात ही नहीं है, पत्र-पत्रिकाओं और किताबों की ओर देखें । 60 करोड़ हिन्दी जानने वालों के देष में हिन्दी की किताबों के संस्करण एक हजार प्रतियों से कम के हो रहे हैं । कहने को षिक्षा का प्रतिषत बढ़ा है लेकिन हिन्दी के पाठक कहां हैं ? मात्र दो प्रतिशत अंग्रेजी जानने वालों के बीच अंग्रेजी की किताबें लाखों की संख्या में बिक जाती हैं ! 
                               क्यों नहीं समस्या की जड़ की ओर ध्यान दिया जाता है । स्कूलों से संवाद हो और हिन्दी के प्रति उनके नजरिए को बदलने का प्रयास किया जाए । भले ही पढ़ाई का माध्यम अंग्रेजी हो लेकिन हिन्दी को असफलता से जोड़ कर देखने-दिखाने की प्रवृत्ति पर रोक लगे । स्कूल की तमाम दूसरी गतिविधियां हिन्दी में संचालित हों और बच्चों को अपनी राष्ट्र्भाषा के निकट आने में मदद की जाए । देश हर एक को अपनी बात कहने का अधिकार देता है लेकिन राष्ट्र्भाषा को अपमानित करने की इजाजत तो किसी को नहीं होना चाहिए । प्रथमिक स्तर की शिक्षा  के लिए पचास हजार से एक लाख रुपए तक की फीस वसूलने वाले स्कूलों को सरकारी अनुदान की जरूरत भले ही न हो पर उन्हें शासकीय  आदेश तो मानने ही होंगे । 

                                                                          ---

Monday, September 19, 2011

वही नहीं थे महफिल में , जिनसे चिराग रौशन रहे ...


                  
आलेख 
जवाहर चौधरी 

         हाल ही में एक अखबार ने इस बात के लिए जश्न  मनाया कि उसकी प्रसार संख्या में काफी इजाफा हुआ है । पाठक संख्या , जैसा कि उनका अनुमान है , दुगनी हो गई है । अखबार के अनेक संस्करण निकाले जा रहे हैं । पृष्ठों की संख्या भी पहले से अधिक है । बरसों पुराने , बूढ़े हो चुके पाठकों के अलावा नए और युवा पाठक भी बड़ी संख्या में जुड़ चुके हैं । ऐसे लेखक जिनकी पहचान राष्ट्रिय  स्तर पर है , अब इस अखबार के लिए लिख रहे हैं । यही नहीं अखबार का दावा है कि वह नए लेखकों और स्थानीय भाषा के विकास के मामले में उदार है । पाठकों को अच्छी और पठनीय सामग्री मिले इसके प्रति गंभीरता का उसका दावा हमेशा  नारे की तरह होता है ।
                 सफलता का यह जश्न  एक बड़े होटल में अयोजित था । दूसरे दिन बड़े बड़े फोटो तीन पेज में लगा कर पाठकों को इसकी जानकारी दी गई । अतिथियों में सारे लोग विज्ञापनदाता थे । यही नहीं हरएक फोटो के नीचे लिखा हुआ था कि ये साहब फलां कंपनी के हमारे विज्ञापनदाता हैं । कई विज्ञापन एजेन्सियों के विकास पुरुष महामहिम की सी मुद्रा में दिखाए गए थे । अखबार का सारा कुछ विज्ञापन के आसपास का था और उनके बीच अखबार के प्रतिनिधि पुलकित और बिछे जा रहे दिख पड़ रहे थे ।
                   सवाल यह है कि जब एक अखबार अपनी सफलता का जश्न मनाता है तो पाठकों को क्या यह सन्देश  देना भी जरूरी है कि उनके लिए केवल विज्ञापनदाता ही सबकुछ हैं ! अखबार में विज्ञापन ही होते हैं क्या ! क्या वे जानते हैं कि ज्यादातर लोग पूरे पृष्ठ पर छपे विज्ञापन को देख कर कुपित होते हैं और प्रायः बिना पढ़े उसे पलट देते हैं । जैसे कि टीवी पर विज्ञापन आते ही नब्बे प्रतिशत  लोग म्यूट कर देते हैं । माना कि अखबार चलाने वालों के लिए विज्ञापनदाता मांईं-बाप होते हैं लेकिन अन्य महत्वपूर्ण घटकों की उपेक्षा करना क्या सन्देश  देता है । अखबार के वे लेखक क्यों नहीं थे जश्न में जिन्हें पढ़ने के लिए पाठक अखबार खरीदता है । वे संपादक, पत्रकार और कालमिस्ट भी नजर में नहीं आए जिनसे अखबार इतना लोकप्रिय हो सका ! प्रायः हर अखबार में लिखने वाले स्थायी होते हैं भले ही वे उसमें नौकरी नहीं करते हों । वे पाठकों की पसंद होते हैं और अखबार की प्रतिष्ठा भी बढ़ाते हैं । लेकिन जब जश्न मनाना हो , सफलता प्रदर्षित करना हो तो इन्हें अनदेखा करने की प्रवृत्ति आम है । पाठकों से मालिक क्या अपनी यह कृपणता अधिक दिनों तक छुपा पाएंगे ?