Friday, January 29, 2010

* सो जाओ कि भाषा मरती है !!


आलेख 
जवाहर चौधरी 


अंग्रेज़ी अंग्रेज़ों के राज यानी दो सौ साल में उतनी नहीं बढ़ी जितनी पिछले साठ साल में। इस यथार्थ का की पड़ताल के लिए हिंदी वालों को अपना अंतस खंगालना होगा। पैसा, सुख-समृद्धि इसके कारण प्रतीत होते हैं तो भी इसकी सूक्ष्मता में जाने की ज़रूरत है। जो बाज़ार अंग्रेज़ी की अनिवार्यता घोषित करते हुए नौकरियां देता है वही अपना "धंधा' करने के लिए हिंदी सहित दूसरी क्षेत्रीय भाषाओं पर निर्भर दिखाई देता है।

टीवी, फ़िल्में और अख़बार आज संचार के मुख्य माध्यम है। इनमें ९५ प्रतिशत विज्ञापन हिंदी के होते हैं। रामायण, महाभारत जैसे कार्यक्रम तो थे ही हिंदी के, लेकिन कौन बनेगा करोड़पति या इसी श्रृंखला के तमाम लॉटरी-जुआ सरीखे कार्यक्रम हिंदी में ही चलाए गए। धंधेबाज़ उसी भाषा का दामन पकड़ लेते हैं जिसमें उन्हें पैसा मिलने की गुंजाइश दिखाई देती हो। पैसा मिले तो हमारा हीरो सीख कर हर भाषा बोलने लगता है। साक्षात्कार देते समय जो सुंदरी अंग्रेज़ी के अलावा कुछ नहीं उगलती वह पैसा मिलने पर भोजपुरी, अवधी, खड़ी बोली, आदि सभी तरह की हिंदी बोल लेती है।

हाल ही में एक नवोदित गायिका को हिंदी गाने के लिए अवार्ड मिला। आभार व्यक्त करते हुए उसने अंग्रेज़ी झाड़ी तो संचालक ने उससे हिंदी में बोलने का आग्रह किया। हिंदी के चार-छह शब्द उसने जिस अपमानजनक ढंग से बोले उसे भूलना कठिन है। भाषा का सरोकार धन और धंधे से हो गया है और यही चिंता का विषय माना जाना चाहिए। थैली दिखाते सामंती बाज़ार के आगे लगता है हमारी ज़बान पतुरिया हो जाती है!

बहुत-सी पत्र-पत्रिकाएँ भाषा के सामान्य, लेकिन आवश्यक मानदंडों की उपेक्षा करते हुए जिस तरह की भाषाई विकृतियां प्रस्तुत कर रही हैं उस पर हल्ला मचाने की आवश्यकता है। लेकिन हम में यानी हिंदीभाषियों में अपनी मातृभाषा के प्रति प्रेम और प्रतिबद्धता अभी तक जागृत नहीं हो पाई है जबकि अन्य भारतीय भाषाओं में यह विकसित है। उर्दू, मराठी, बांग्ला, तमिल, तेलुगू, मलयालम आदि भाषाएं प्रतिबद्धता के साथ विकसित हो रही हैं। ये सारी अंग्रेज़ी का प्रयोग करतीं हैं, लेकिन यह उनकी प्राथमिकता नहीं होती है।दो मराठी या बांग्ला भाषी लोग अंग्रेज़ी जानते हुए भी अपनी भाषा में बात करते हुए गर्व करते हैं। लेकिन हिंदी में प्रायः ऐसा नहीं होता। हिंदी वाला अपनी अच्छी हिंदी को किनारे कर कमज़ोर अंग्रेज़ी के साथ खुद को ऊंचा समझने के भ्रम को पुष्ट करता है। यदि हम ऐसी जगह फंसे हों जहां बर्गर और पित्ज़ा ही उपलब्ध हों तो मजबूरी में उसे खाना ही है, पर इसका मतलब नहीं है कि अपने पाकशास्त्र को खारिज ही कर दें। आज की शिक्षा व्यवस्था में अंग्रेज़ी का हस्तक्षेप अधिक है। इसलिए माना कि फ़िलहाल विकल्प नहीं है। अंग्रेज़ी में ही पढ़िए, लेकिन शेष कामों में अंग्रेज़ी को जबरन घुसेड़ने और गर्व करने की क्या ज़रूरत है.

गांधीजी ने राष्ट्रभाषा के रूप में हिंदी की वकालत की थी। वे स्वयं संवाद में हिंदी को प्राथमिकता देते थे। आज़ादी के बाद सरकारी काम शीघ्रता से हिंदी में होने लगे, ऐसा वे चाहते थे। राजनीतिक संगठनों से कुछ आशा बंधी थी कि कि वे हिंदी को लेकर ठोस और गंभीर कदम उठाएंगे। भाजपा, सपा और अन्य क्षेत्रीय दलों में उम्मीदें अधिक थीं। लेकिन भारतीय सभ्यता और संस्कृति से ऑक्सीज़न लेने वाले दल भी अंग्रेज़ी में दहाड़ते देखे जा सकते हैं। हिंदी को वोट मांगने और अंग्रेज़ी को राज करने की भाषा हम ही बनाए हुए हैं। कुछ लोग सोचेते हैं कि केन्द्र में राजनीतिक सक्रियता के लिए अंग्रेज़ी ज़रूरी है। ऐसा सोचते वक्त यह भुला दिया जाता है कि लालू प्रसाद, रामविलास पासवान, सोनिया गांधी, अटल बिहारी वाजपेयी जैसे शीर्ष पर बैठै नेता बिना अंग्रेज़ी की दक्षता के सक्रिय और सफल है।

3 comments:

  1. आपकी यह पोस्‍ट सत्‍ता की भाषा शीर्षक से आज 13 फरवरी 2010 के दैनिक जनसत्‍ता में समांतर स्‍तंभ में पेज 6 पर प्रकाशित हुई है। झूठ के परदे में छेद करने जिससे सच्‍चाई बाहर आई है, आपको बधाई। अब हमें हिन्‍दी को अंतरराष्‍ट्रीय भाषा बनाने के लिए लड़नी है लड़ाई। राष्‍ट्रभाषा का समय तो बीत चुका है अब। हिन्‍दी की ताकत अब सबको पहचाननी होगी।

    शब्‍द पुष्टिकरण निष्क्रिय करेंगे तो हिन्‍दी के रास्‍ते में आ रही एक बाधा जो अंग्रेजी बनी है, तो हट ही जाएगी। इसके लिए डेशबोर्ड में सैटिंग में जाकर कमेंट्स में शब्‍द पुष्टिकरण को निष्क्रिय कीजिएगा।

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  2. इन दिनों इससे भी ज़्यादा गन्दी स्थिति होती जा रही है. तथाकथित हिन्दीवादी लोग जिस तरह हिन्दी में अंग्रेजी मिलाकर हिंग्लिश बोल रहे हैं, और यह भाषा जिस तरह अखबारों-पत्रिकाओं के ज़रिये लिखित रूप लेती जा रही है, वह तो और भी ख़तरनाक है.इसका ज़ोरदार विरोध होना चाहिए.

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  3. मुझे लगता है आज से चार - पांच साल पहले हिंदी की जो दुर्गति थी वो आज कम है । कल तक स्थिति इतनी भयानक थी कि यदि आपको अंग्रेजी भाषा नहीं आती है तो आपका जीना व्यर्थ है । भले ही आप हिंदी भाषा के जानकार हैं । लेकिन आज की स्थिति में सुधार हुआ है और हिंदी भाषा को अपनी खोई हुई जगह मिल गई है । नतीजतन हमें अंग्रेजी भाषा न आने पर शर्म महसूस नहीं होती । यह देखकर अच्छा लगता है कि आज स्कूलों में अंग्रेजी के साथ - साथ हिंदी भाषा बोलने , समझने व पढ़ने पर पूरा बल दिया जा रहा है । यह भी तो हिंदी भाषा की लोकप्रियता का ही उदाहरण है कि हम धड़ल्ले से हिंदी ब्लॉगिंग करने में जुटे हुए हैं ।

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